Thursday, 25 December 2014

ऊधम थे ऊधम ही






















क्या करें, क्या न करें का द्वन्द्व गहरा रहा था, चिन्तना पडी हुई थी ऐसे पशोपेश में
हमको स्वतन्त्रता का सुख देना चाहा जब हम जी रहे थे परतन्त्रता के क्लेश में
जहां आम तौर पे प्रवेश भी न मिलता था, पहुंचे वहां भी वे न जाने किस वेश में
ऊधम थे ऊधम ही जिनने यहां से जा के डायर को भून डाला डायर के देश में
@ डा० राहुल अवस्थी
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Sunday, 16 November 2014

शान्ति-व्यवस्था की खातिर


































जो जैसा जिस क़ाबिल था, उसको उस घाट उतारा है
गोरी को पृथ्वी ने उसके घर में जा कर मारा है



















शिशुपालों पर चक्र चलाना कृष्णों की मजबूरी है
शान्ति-व्यवस्था की खातिर सार्थक सङ्ग्राम जरूरी है


















@  डा० राहुल अवस्थी
@ सृजन कवि सम्मेलन, उन्नाव। १५ नवम्बर २०१४
@ चित्र-सौजन्य : विश्वनाथ तिवारी विशु

















 
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Monday, 3 November 2014

दीपावली मना न सके



 
















बात चरित्रों की करते थे पर आचरण बचा न सके
प्रिय आवरण वरण कर पाये, पर्यावरण बचा न सके
 



















वैभव की चाहत में सम्भव हर आहट ठुकरायी हमने
नवता का आग्रह रखकर भी केवल रीति निभायी हमने




 
















शान्त सवेरों के खाते में बारूदों का स्वर भर डाल
हमको क्या करना था लेकिन हमने क्या से क्या कर डाला






 


















जैसे भाव रहे वैसा तो वातावरण बना न सके
दीपों की मजबूरी देखी, दीपावली मना न सके



 
















@ डा० राहुल अवस्थी
कवि सम्मेलन : दीपावली मङ्गल मिलन
२४ अक्तूबर २०१४। इन्द्रप्रस्थ एक्स्टैंशन, नयी दिल्ली




 



















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वतन से बडा नहीं


 















 पूछा गया कक्षा में कि किससे बडा है कौन, एक ने कहा कि कुछ धन से बडा नहीं
दूसरे ने कहा कुछ तन से बडा नहीं है, तीसरे ने कहा कुछ मन से बडा नहीं
चौथे ने कहा कि क्षण, पांचवें ने कहा प्रण, छट्ठे ने कहा कि जन गण से बडा नहीं
सातवें ने कहा कोई कितना बडा हो किन्तु अन्ततः अपने वतन से बडा नहीं



 


















@ डा० राहुल अवस्थी
२ नवम्बर २०१४। कटरा सआदतगञ्ज, बदायूं
 



















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Saturday, 1 November 2014

दीपावली मना न सके


 















 बात चरित्रों की करते थे पर आचरण बचा न सके
प्रिय आवरण वरण कर पाये, पर्यावरण बचा न सके
वैभव की चाहत में सम्भव हर आहट ठुकरायी हमने
नवता का आग्रह रखकर भी केवल रीति निभायी हमने
शान्त सवेरों के खाते में बारूदों का स्वर भर डाल
हमको क्या करना था लेकिन हमने क्या से क्या कर डाला
जैसे भाव रहे वैसा तो वातावरण बना न सके
दीपों की मजबूरी देखी, दीपावली मना न सके






 
















@ डा० राहुल अवस्थी
 



















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Thursday, 30 October 2014

तिरङ्गा नहीं झुकने देंगे


 
















बिस्मिल-अश्फ़ाक़ की जिद के मुरीद हम होंगे 
कभी आजाद तो कभी हमीद हम होंगे
अपनी पहचान तिरङ्गा नहीं झुकने देंगे

वक़्त बोले तो वतन पर शहीद हम होंगे


 















हिन्दुस्तान कवि सम्मेलन
 २९ अक्तूबर २०१४ । शाहजहांपुर

@ डा० राहुल अवस्थी


 














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Tuesday, 21 October 2014

आओ ये विश्वास लिये


मानवता का दानवता के सम्मुख झुका न माथा है
दीवाली अंधियारों पर उजियारों की जयगाथा है
चारों ओर उजाला होगा, रातों का बल हारेगा
एक दिया अन्धेरे को अन्तिम पल तक ललकारेगा
सूरज का प्रतिनिधि कब तक तमसा में धीरज धारेगा
दीया अन्धेरों को उनके घर में घुस कर मारेगा
हर अन्धेरा हारेगा, दियना तो एक जलाएं
आओ ये विश्वास लिये हम दीपावली मनाएं
ऐसी दीपावली कि हर तम का पर्वत गल जाये
अन्तर-अन्तर में अपनेपन का दीपक जल जाये





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हर नर्क मिटायें



 













संसाधन-साधन-धन की सारी साधना अधूरी है
जीवन में न कभी यदि तन सिन्दूरी मन कस्तूरी है
चरण-चरण आचरणिक शुचिता मानव की मजबूरी हो
अपनी सेहत से पहले धरती का स्वास्थ्य जरूरी हो
फ़र्क़ बढाने वाला हर नाजायज तर्क मिटायें
बेडा गर्क करे अपना, ऐसा हर नर्क मिटायें















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Tuesday, 14 October 2014

हमें तुम गुनगुनाओगे

गीत-प्रणाम...




पद्य की पहली पुस्तक गीतकृति : हमें तुम गुनगुनाओगे
आभार : अखिल भारतीय सर्व भाषा संस्कृति समन्वय समिति और नीहारिकाञ्जलि प्रकाशन
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वहीं हङ्गामा बरपा है

जहां ऐसे भी लम्हे थे, वहीं हङ्गामा बरपा है...


राजेन्द्र प्रसाद स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मीरगञ्ज (बरेली) के बी०टी०सी सङ्काय में राजभाषा-सप्ताह के समापन पर बतौर मुख्य अतिथि था। गजब का उत्साह और कला-कौशल देखने को मिला स्वतःस्फूर्त ढङ्ग से। लगभग एक घण्टे तक प्रशिक्षुओ ने पूरी गुरु-गम्भीरता से अनवरत उठते ठहाकों, ताबडतोड तालियों, उत्ताल ऊर्जा और अमन्द आनन्द के साथ उद्बोधन-श्रवण किया था। अभिभूत था मैं, किन्तु क्या कारण है कि हाल ही में वहां बी०एड० विभाग के अध्यक्ष प्रख्यात बालकवि और विद्वान डा० नागेश पाण्डेय 'सञ्जय' के साथ भयानक अभद्रता की गयी! बहुत कुछ कयास लगाये जा रहे हैं। लोग न जाने क्या-क्या कह रहे हैं : व्यवस्था-शैथिल्य - कमजोर प्रानुशासन, प्राध्यापन, प्रशासन, प्रबन्धन; स्थानीय समीकरण, क्षेत्रीय दबङ्गई, बिना मेहनत टाप करने की अनैतिक चाहत या राजनीति की नर्सरी के सर पर अराजक राजनीति का हाथ; लेकिन जिनको कहना चाहिए, वे कुछ नहीं कह रहे। कारण कुछ भी हो किन्तु सोचना तो हमें होगा ही कि हमारी उच्च शिक्षा की दशा और दिशा आखिरकार है क्या...

@ डा० राहुल अवस्थी
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Friday, 10 October 2014

हमने जवाब दिया


वैरी वार करते हैं नज़रें बचा के किन्तु वीर वार करते नज़र को उठा के ही
इसीलिए ईंटों का जवाब पत्थरों से दिया हमने हमेशा निज कर को उठा के ही
घुसपैठियों ने गुपचुप घुसपैठ की तो ललकारा हमने है स्वर को उठा के ही
कायरों ने सर को झुका के गोलीबारी की थी, हमने जवाब दिया सर को उठा के ही




@ डॉ० राहुल अवस्थी
@ चित्र-सौजन्य : BHANU BHARADWAAJ, आई-नेक्स्ट, बरेली
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वाल्मीकि जो न होते

  
















मानस की कल्पना को तुलसी कहां संजोते 
सीता के त्याग-तप को जीवनकथा से खोते
भगवान राम को भी दुनिया न जानती यूं 

दुनिया में आदि कविवर वाल्मीकि जो न होते 



 















@ डा० राहुल अवस्थी । ९ अक्तूबर २०१४ ई०
@ रामायण महोत्सव : वाल्मीकि सद्भावना मेला, ब्रह्मपुरा, बरेली
@ चित्र-सौजन्य : विकास महर्षि । संयोजन : आकाश पुष्कर । संरक्षण : मनोज थपलियाल


 




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Thursday, 11 September 2014

हमको कुछ कहना है

हमने सङ्घर्ष सहर्ष जिया...







 













 ये जीवन है, सब सहना है : फिर भी हमको कुछ कहना है
विष अमृत-सा पी आये तो : इतना जीवन जी आये तो
कुछ शोक जिया, कुछ हर्ष जिया : हमने सङ्घर्ष सहर्ष जिया
कुछ ऐसा भी अभ्यास जिया : घर में रहकर संन्यास जिया
ऐसे भी सबके खास रहे : हम दूर रहे पर पास रहे
कुछ ऐसे भी मजबूर रहे : हम पास रहे पर दूर रहे
कुछ जिये हक़ीक़त सपनों की : कुछ पीर पराये अपनों की
कुछ से कुछ-कुछ परिवाद रहा : कुछ से संवाद-विवाद रहा
भूखे थे पर हंसकर सोये : जब पेट भरा था, तब रोये
कुछ दान किया, बलिदान किया : खुद्दारी पर अभिमान किया
यूं कहीं झुकाया माथ नहीं : नाहक फैलाया हाथ नहीं
झुकने के कारण तने रहे : जैसे के तैसे बने रहे
अब कुछ भी है, कैसा भी है : अब जो भी है, जैसा भी है
दुनिया का क़िस्सा लगता है : जीवन का हिस्सा लगता है


@ डा० राहुल अवस्थी । १० सितम्बर २०१४ ई०







 













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Wednesday, 3 September 2014

शीश कट जाते किन्तु झुकते नहीं हैं क्यों





















सर ले गये शहीद सैनिकों का वैरी, ऐसा जानने को - डर के ये लुकते नहीं हैं क्यों
चूकता नहीं है क्यों निशाना इनका कदापि  धैर्य, शौर्य, साहस से चुकते नहीं हैं क्यों
चल पडते हैं एक बार को किसीलिये तो मञ्जिल को पाने तक रुकते नहीं हैं क्यों
जानना जरूरी है ये हिन्दुस्तानी सैनिकों के शीश कट जाते किन्तु झुकते नहीं हैं क्यों

@ डा० राहुल अवस्थी
एक शाम : वीरों के नाम @ साइंस सिटी : प्रभात खबर, कोलकाता
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हमने जवाब दिया सर को उठा के ही





















वैरी वार करते हैं नज़रें बचा के किन्तु वीर वार करते नज़र को उठा के ही
इसीलिए ईंटों का जवाब पत्थरों से दिया हमने हमेशा निज कर को उठा के ही
घुसपैठियों ने गुपचुप घुसपैठ की तो ललकारा हमने है स्वर को उठा के ही
कायरों ने सर को झुका के गोलीबारी की थी, हमने जवाब दिया सर को उठा के ही

@ डा० राहुल अवस्थी
   एक शाम : वीरों के नाम @ साइंस सिटी : प्रभात खबर, कोलकाता
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उनका प्रभात भी ख़बरदार






















उनके नजारों का ज़माना है दीवाना जो कि नज़रों से प्यार का पयाम लिख देते हैं
उनकी कहानी पे विराम लगता नहीं है जो मरा- मरा को राम-राम  लिख देते है
उनकी ज़मीन ही सलामत रही है जो कि अम्बर पे शौर्य से सलाम लिख देते हैं
उनका प्रभात भी ख़बरदार मिलता है शाम भी जो वीरों के ही नाम लिख देते हैं


डॉ० राहुल अवस्थी 
 एक शाम : वीरों के नाम @ साइंस सिटी : प्रभात खबर, कोलकाता


भारतीय सेना की कहानियां























लिक्खी गयीं हों न लिक्खी गयीं हों कथाएं किन्तु ऐसी ही निशानियां हैं ऐसी ही बयानियां
वक़्त की पहेलियों पे, जान ले हथेलियों पे लिख दीं धरा के नाम पे ही जिन्दगानियां
कहीं भी कभी भी कैसी कोई भी विपत्ति आयी, काम आयीं देश के हमेशा नौजवानियां
एक नहीं दो नहीं हैं सैकडों-हजारों ऐसी जिन्दाबाद भारतीय सेना की कहानियां

डॉ० राहुल अवस्थी
एक शाम : वीरों के नाम @ साइंस सिटी : प्रभात खबर, कोलकाता
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युद्धवीरों को प्रणाम है




















जिनके कि नाम से सुबह होती सीमा पर, नाम पे ही ढलती सदैव हर शाम है 
जिनके प्रताप का दमक रहा सूर्य आज, तप का चमक रहा चन्द्र आठों याम है
जिनके कि यश का बखान काल करता है, कीर्तिकेतु फहरता ललित ललाम है
युद्ध से जो एक लाख शत्रु बन्दी कर लाये, उन युद्धवीरों-रणधीरों को प्रणाम है

@ डा० राहुल अवस्थी @ एक शाम : वीरों के नाम @ साइंस सिटी : प्रभात खबर, कोलकाता
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Tuesday, 2 September 2014

उनका प्रभात भी ख़बरदार मिलता है






आभार प्रभात-खबर...















उनके नजारों का ज़माना है दीवाना जो कि
नज़रों से प्यार का पयाम लिख देते हैं
उनकी कहानी पे विराम लगता नहीं है
जो मरा-मरा को राम-राम  लिख देते है
उनकी ज़मीन ही सलामत रही है जो कि
अम्बर पे शौर्य से सलाम लिख देते हैं
उनका प्रभात भी ख़बरदार मिलता है
शाम भी जो वीरों के ही नाम लिख देते हैं

























Sunday, 17 August 2014

सारा जीवन कान्हामय

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
परम पुरुष योगिराज श्रीकृष्ण 
(२१ जुलाई ३२२८ ई०पू० - १८ फ़रवरी ३१०२ ई०पू०) 
के ५२४२वें जन्मोत्सव की आत्मिक बधाइयां ...
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 



















नन्द-यशोदा-सा धीरज धर के देखें : स्वर में राधा-सा संयम भर के देखें
सारा जीवन कान्हामय हो जायेगा : अपनी चाहत को मीरा कर के देखें


@डॉ. राहुल अवस्थी
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