बात चरित्रों की करते थे पर आचरण बचा न सके
प्रिय आवरण वरण कर पाये, पर्यावरण बचा न सके
वैभव की चाहत में सम्भव हर आहट ठुकरायी हमने
नवता का आग्रह रखकर भी केवल रीति निभायी हमने
शान्त सवेरों के खाते में बारूदों का स्वर भर डाला
हमको क्या करना था लेकिन हमने क्या से क्या कर डाला
जैसे भाव रहे वैसा तो वातावरण बना न सके
दीपों की मजबूरी देखी, दीपावली मना न सके
@ डा० राहुल अवस्थी
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