मेरे कई मुस्लिम मित्र हैं : सहपाठी भी, परिचित भी। हम बहुत बार साथ होते हैं : तब, जब हमारी मजहबी मान्यताएं सर्वशक्तिमान सत्ता के प्रति प्रत्यक्षतः प्रणताकार हो रही होती हैं, किन्तु ऐसी स्थितियां कभी भी हमारे बीच परिवाद, परिहास और परस्पर उपेक्षा का कारण नहीं बन सकीं। मैं मुशायरों-कविसम्मेलनों में निजामत-सञ्चालन के दौरान सबसे पहले प्रायः नात-ए-पाक़ पढाता रहा हूं और कोशिश करता रहा हूं कि सर नङ्गा न रहे; लेकिन इससे मेरी सनातनी आस्था आज तक न खण्डित हुई, न बाधित। शारद-वन्दन के दौरान मेरे शायर मित्र हमेशा सहयोग करने का प्रयत्न करते हैं, लेकिन वे आज भी मुसलमान ही हैं। बहुत बार मैं किसी इस्लामपन्थी रचनाकार से सरस्वतीवन्दनानिवेदन करा लेता हूं और हिन्दूधर्मानुयायी से हम्द-ओ-नात-शरीफ़ पढवा लेता हूं परन्तु किसी ने न कभी विरोध किया और न कोई क़ाफ़िर या विधर्मी बना। आयोजनों या यात्राओ में प्रयास करता हूं कि नमाज पढने के क्रम में उनका निश्शब्द सहयोग हो सके। मेरा कोई मुस्लिम मित्र मेरे पूजा-पाठ के अनन्तर आ जाता है तो वह इतना शान्त सहयोग करता है कि लगता है, यही पक्की प्रत्यक्ष पूजा कर रहा है। किसी की इबादत में कैसा भी खलल न डालना इबादत का उत्कृष्टतम रूप है। मैं विशुद्ध शाकाहारी हूं : लहसुन-प्याज तक से परहेज करने वाले परिवार से। खानपान के प्रति बेहद चूजी; किन्तु जब तबर्रुक़ तक़सीम होता है तो मैं खजूर जरूर लेता हूं और जब मैं पूजा के उपरान्त प्रसाद वितरित करता हूं तो मेरे मुस्लिम मित्र मांग-मांग के ग्रहण करते हैं। एक-दो बार जब भी अपने ऐसे परिचितों-दोस्तों से एहतियातन पूछने की हिम्मत की है कि क्या प्रसाद ले सकते हैं, तो हमेशा उनके द्वारा तीखी भर्त्सना का शिकार हुआ हूं, हडका लिया गया हूं और इस तञ्जिया सवाल का शिकार हुआ हूं कि क्यों नहीं लेंगे। देना न चाहोगे तो भी ले लेंगे : लूटकर भी। मैं ऐसे अवसरों पर हमेशा अंसुआ आया हूं; ठीक वैसे ही, जैसे सत्यनारायण की कथा, हवन और पूजा-पाठ के कई अवसरों पर पापा रफ़ीक़ ताऊजी, नसरुद्दी दउवा, झन्नन अङ्कल और मुन्ना चाचा की ऐसी डांट-डपट और झिडकियों से भर आया करते थे। रफ़ीक़ ताऊ पञ्चामृत के प्रेमी थे। उनके न रहने की खबर पर हमारे घर में भी गमी का कैसा माहौल हो आया था, वह बचपन की याद अभी तक धुंधलाई नहीं है। झन्नन अङ्कल रामेश्वरम से प्रसाद में ताऊजी के लिये उनका नाम लिखा शङ्ख और तुलसीमाल लाये थे और ताईजी के लिये सिन्दूर। उनका दिया हुआ एक गमछा भी अभी तक हमारे घर में तबर्रुक़ के तौर पर सुरक्षित है। इसका अर्थ ये तो नहीं कि वे मुस्लिम नहीं रहे थे और हम हिन्दू। नसरुद्दी दउवा हमारे गांव में इस्लामपन्थी अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जो आज भी हम हिन्दुओ के बीच आराम से रह रहे हैं। पिछली ईसवी सदी के अन्तिम दशक में सारे के सारे मुसलमान परिवार एक आदमी के बरगलाने पर नाहक ही गांव छोड कर चले गये। नसरुद्दी दउवा को भी ले जाने की पुरजोर कोशिश की और न जाने क्या-क्या कहा किन्तु उन्होंने जाने से मना कर दिया और कहा कि यहीं पैदा हुआ, यहीं मरूंगा। अब जाऊंगा कहीं नहीं। समय काटने को अपना पुराना शौक़ आजमाते हैं : बकरी चराते हैं। थोडा-बहुत अपने खेतों में हिन्दू बटाईदारों की देख-रेख में जाते हैं और दोनों वक़्त का खाना हिन्दू भाइयों-भतीजों, नाती-पोतों के घर हिन्दू बहुओ-बेटियों का बना खाते हैं। मौक़ा पाते हैं तो थपडिया भी देते हैं शैतानी करते बालकों को; लेकिन क्या मजाल कि कोई उन्हें चूं कर जाये। मुन्ना चाचा की त्यॊहारी बिना हमारी होली-दिवाली अधूरी है, उनकी मिठाई-भुरकी और खील-खिलौनों के बिना पूरे गांव की भैयादूज असम्भव है। हमारा हर मङ्गल-कारज उनकी बाट जोहता है। हक़ीम-दस्तूर वाले हैदर ताऊ भी नहीं रहे, जो तहेरे भाई और मेरे यज्ञोपवीत में सबसे पहले ही निमन्त्रणपत्र के अधिकारी थे। मैं मूलतः अवधक्षेत्रवासी हूं। मेरा उर्दू-उच्चारण कमजोर रहा। मेरे मित्र डा० हुमायूं मुश्ताक़ से जबान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला के लफ़्जों के तलफ़्फ़ुज को उम्दा बनाने में यक़ीनी तौर पर मदद मिली। वे मुझसे कभी-कभार हिन्दीशब्दावली और उसकी रेञ्ज पर विमर्श कर लिया करते थे। मैं जहां बरेली कालेज के बोर्ड आफ़ कण्ट्रोल के वरिष्ठतम सदस्य जनाब जे.एन.सक्सेना की नफ़ीस उर्दूबयानी का मैं दीवाना हूं, वहीं अपने कई मुस्लिम मित्रों के शुद्ध हिन्दीज्ञान का भक्त। अपने दोस्त मुजक़्क़िर अली जैदी गुलशन से इस्लाम पन्थ की ऐतिहासिक जानकारी और उसकी बारीक़ियों से बाबस्ता होने की कोशिश करता हूं तो वहीं कई शायर साथियों से अदब में फ़न-ए-अरूज और कहन-तगज्जुल पर भी तज्क़िरा और मश्विरा कर लेता हूं। मुल्ला दाउद और मलिक मोहम्मद जायसी, क़ुतुबन-मञ्झन, उस्मान-रहीम-रसखान की रवायत वाले फ़ारूक़ सरल, अली हसन मकरैण्डिया, छुट्टन खां साहिल, दीन मोहम्मद दीन, अब्दुल गफ़्फ़ार, मुस्तफ़ा माहिर और शराफ़त समीर जैसे न जाने कितने काव्यनिष्ठ नामों के प्रति मेरी प्रणत प्रशंसक हूं। न जाने कितने निदर्शन ऐसे हैं जो मैं व्यक्तिगत तौर पर सुनाता-बताता जाऊं तो एक ऐसी जोरदार और अद्भुत श्रृङ्खला बन जायेगी, जिसकी हर दूसरी कडी हिन्दू-मुस्लिम की होगी। मैं खानक़ाह जाता हूं या महामानवों की मजारों पर सर झुकाता हूं,चादर चढाता हूं तो इसका अर्थ यह हुआ कि मैं हिन्दू नहीं रहा। नहीं साहब! मजहब अपनी जगह है और अक़ीदत अपनी जगह। मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना। लेकिन हमारी सियासत को ऐसा मञ्जूर नहीं लगता। मञ्जूर भी कैसे हो : मुट्ठी भर नासमझों को बरगला कर अपना उल्लू भी तो सीधा करना है। सब सीधे-सादे हों तो पुलिस भूखों मर जाये। पद पर बन आयेगी : यही होगा कि खत्म करो यह महकमा। क्या जरूरत है इनकी। सियासत की भी यही स्थिति है। सब समझदार हो गये तो हर तरह लहर-लहर लहराती-लफाती सुखी सियासत सूख जायेगी। भाषा, वर्ग, जाति, सम्प्रदाय, मजहब, क्षेत्रवादी राजनीति वोटों की फसल काटने को खाद की मानिन्द नारकीय नेताओ के लिये जरूरी है। लेकिन ध्यान रखा जाये कि जैसे एक ही तुक्का हर बार तीर का काम नहीं करता, जैसे एक ही दवाई हर रोग पर हर समय कारगर नहीं हो पाती, जैसे एक ही तरह का भोजन हर कोई हर जगह पसन्द नहीं करता, जैसे एक ही तरह की नीतियां हमेशा सफल नहीं होतीं; वैसे ही सियासत के स्तर पर वोटों की भूखी टुच्ची राजनीति के घृणित हथकण्डे हर स्थान पर हर बार, बार-बार काम नहीं आने। दुष्ट नेताओ की नालायकी जनता समझ चुकी है, बदलाव की बयार चल पडी है लेकिन मैं अब तक यह पूरी तरह समझ नहीं पाया हूं कि शहरी विकास के नाम पर रामपुर नगर के महत्वपूर्ण पहचानप्रतीकों को ध्वस्त करा डालने के आरोपी माननीय मोहम्मद आजम खां का हिन्दुस्तानी सैनिकों की शहादत से सम्बन्धित विवादास्पद बयान महज एक चुनावी हथकण्डा था, वोटों के ध्रुवीकरण की साजिश थी, किसी आला आदमी का अहम इशारा था, हमारी फ़ौज को आत्मिक-नैतिक रूप से कमजोर करने का पूर्वनियोजित प्लान था, कोई तवारीखी बदला था, किसी प्रतिस्पर्धी देश से मिले किसी गुपचुप नजराने का नतीजा था, जाफ़र-जयचन्द जैसी गद्दारी की नयी कडी थी, तुलसी-कबीर और खुसरो-दाराशिकोह के अदब का गला दबाने की चेष्टा थी, बिस्मिल-अश्फ़ाक़ की हमीदाना-शहीदाना रवायत को इतिहास के पन्नों पर झुठलाने का षडयन्त्र था, हिन्दू-मुसलमान को भडकाकर किसी और मुजफ़्फ़रनगर-अलीगढ दङ्गों का नक़्शा तैयार करने की भूमिका थी, किसी वर्गविशेष के दिलों में सदियों से पल रही पारम्परिक दुर्भावनाओ की सम्भावनाओ का सहज-सूक्ष्म प्रक्षेपण था या आने वाली नयी नस्लों के लिये कई-कई पाकिस्तानों के लिये हमारे प्यारे वतन हिन्दुस्तान के उन्नीस सौ सैंतालीसी तक़सीमी सोच का साम्प्रतिक ब्लूप्रिण्ट। आखिर क्या, क्या-क्या? कहीं यह एक और क़ायदे-आजम की तैयारी तो नही!
Saturday, 31 May 2014
एक और क़ायदे-आजम
मेरे कई मुस्लिम मित्र हैं : सहपाठी भी, परिचित भी। हम बहुत बार साथ होते हैं : तब, जब हमारी मजहबी मान्यताएं सर्वशक्तिमान सत्ता के प्रति प्रत्यक्षतः प्रणताकार हो रही होती हैं, किन्तु ऐसी स्थितियां कभी भी हमारे बीच परिवाद, परिहास और परस्पर उपेक्षा का कारण नहीं बन सकीं। मैं मुशायरों-कविसम्मेलनों में निजामत-सञ्चालन के दौरान सबसे पहले प्रायः नात-ए-पाक़ पढाता रहा हूं और कोशिश करता रहा हूं कि सर नङ्गा न रहे; लेकिन इससे मेरी सनातनी आस्था आज तक न खण्डित हुई, न बाधित। शारद-वन्दन के दौरान मेरे शायर मित्र हमेशा सहयोग करने का प्रयत्न करते हैं, लेकिन वे आज भी मुसलमान ही हैं। बहुत बार मैं किसी इस्लामपन्थी रचनाकार से सरस्वतीवन्दनानिवेदन करा लेता हूं और हिन्दूधर्मानुयायी से हम्द-ओ-नात-शरीफ़ पढवा लेता हूं परन्तु किसी ने न कभी विरोध किया और न कोई क़ाफ़िर या विधर्मी बना। आयोजनों या यात्राओ में प्रयास करता हूं कि नमाज पढने के क्रम में उनका निश्शब्द सहयोग हो सके। मेरा कोई मुस्लिम मित्र मेरे पूजा-पाठ के अनन्तर आ जाता है तो वह इतना शान्त सहयोग करता है कि लगता है, यही पक्की प्रत्यक्ष पूजा कर रहा है। किसी की इबादत में कैसा भी खलल न डालना इबादत का उत्कृष्टतम रूप है। मैं विशुद्ध शाकाहारी हूं : लहसुन-प्याज तक से परहेज करने वाले परिवार से। खानपान के प्रति बेहद चूजी; किन्तु जब तबर्रुक़ तक़सीम होता है तो मैं खजूर जरूर लेता हूं और जब मैं पूजा के उपरान्त प्रसाद वितरित करता हूं तो मेरे मुस्लिम मित्र मांग-मांग के ग्रहण करते हैं। एक-दो बार जब भी अपने ऐसे परिचितों-दोस्तों से एहतियातन पूछने की हिम्मत की है कि क्या प्रसाद ले सकते हैं, तो हमेशा उनके द्वारा तीखी भर्त्सना का शिकार हुआ हूं, हडका लिया गया हूं और इस तञ्जिया सवाल का शिकार हुआ हूं कि क्यों नहीं लेंगे। देना न चाहोगे तो भी ले लेंगे : लूटकर भी। मैं ऐसे अवसरों पर हमेशा अंसुआ आया हूं; ठीक वैसे ही, जैसे सत्यनारायण की कथा, हवन और पूजा-पाठ के कई अवसरों पर पापा रफ़ीक़ ताऊजी, नसरुद्दी दउवा, झन्नन अङ्कल और मुन्ना चाचा की ऐसी डांट-डपट और झिडकियों से भर आया करते थे। रफ़ीक़ ताऊ पञ्चामृत के प्रेमी थे। उनके न रहने की खबर पर हमारे घर में भी गमी का कैसा माहौल हो आया था, वह बचपन की याद अभी तक धुंधलाई नहीं है। झन्नन अङ्कल रामेश्वरम से प्रसाद में ताऊजी के लिये उनका नाम लिखा शङ्ख और तुलसीमाल लाये थे और ताईजी के लिये सिन्दूर। उनका दिया हुआ एक गमछा भी अभी तक हमारे घर में तबर्रुक़ के तौर पर सुरक्षित है। इसका अर्थ ये तो नहीं कि वे मुस्लिम नहीं रहे थे और हम हिन्दू। नसरुद्दी दउवा हमारे गांव में इस्लामपन्थी अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जो आज भी हम हिन्दुओ के बीच आराम से रह रहे हैं। पिछली ईसवी सदी के अन्तिम दशक में सारे के सारे मुसलमान परिवार एक आदमी के बरगलाने पर नाहक ही गांव छोड कर चले गये। नसरुद्दी दउवा को भी ले जाने की पुरजोर कोशिश की और न जाने क्या-क्या कहा किन्तु उन्होंने जाने से मना कर दिया और कहा कि यहीं पैदा हुआ, यहीं मरूंगा। अब जाऊंगा कहीं नहीं। समय काटने को अपना पुराना शौक़ आजमाते हैं : बकरी चराते हैं। थोडा-बहुत अपने खेतों में हिन्दू बटाईदारों की देख-रेख में जाते हैं और दोनों वक़्त का खाना हिन्दू भाइयों-भतीजों, नाती-पोतों के घर हिन्दू बहुओ-बेटियों का बना खाते हैं। मौक़ा पाते हैं तो थपडिया भी देते हैं शैतानी करते बालकों को; लेकिन क्या मजाल कि कोई उन्हें चूं कर जाये। मुन्ना चाचा की त्यॊहारी बिना हमारी होली-दिवाली अधूरी है, उनकी मिठाई-भुरकी और खील-खिलौनों के बिना पूरे गांव की भैयादूज असम्भव है। हमारा हर मङ्गल-कारज उनकी बाट जोहता है। हक़ीम-दस्तूर वाले हैदर ताऊ भी नहीं रहे, जो तहेरे भाई और मेरे यज्ञोपवीत में सबसे पहले ही निमन्त्रणपत्र के अधिकारी थे। मैं मूलतः अवधक्षेत्रवासी हूं। मेरा उर्दू-उच्चारण कमजोर रहा। मेरे मित्र डा० हुमायूं मुश्ताक़ से जबान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला के लफ़्जों के तलफ़्फ़ुज को उम्दा बनाने में यक़ीनी तौर पर मदद मिली। वे मुझसे कभी-कभार हिन्दीशब्दावली और उसकी रेञ्ज पर विमर्श कर लिया करते थे। मैं जहां बरेली कालेज के बोर्ड आफ़ कण्ट्रोल के वरिष्ठतम सदस्य जनाब जे.एन.सक्सेना की नफ़ीस उर्दूबयानी का मैं दीवाना हूं, वहीं अपने कई मुस्लिम मित्रों के शुद्ध हिन्दीज्ञान का भक्त। अपने दोस्त मुजक़्क़िर अली जैदी गुलशन से इस्लाम पन्थ की ऐतिहासिक जानकारी और उसकी बारीक़ियों से बाबस्ता होने की कोशिश करता हूं तो वहीं कई शायर साथियों से अदब में फ़न-ए-अरूज और कहन-तगज्जुल पर भी तज्क़िरा और मश्विरा कर लेता हूं। मुल्ला दाउद और मलिक मोहम्मद जायसी, क़ुतुबन-मञ्झन, उस्मान-रहीम-रसखान की रवायत वाले फ़ारूक़ सरल, अली हसन मकरैण्डिया, छुट्टन खां साहिल, दीन मोहम्मद दीन, अब्दुल गफ़्फ़ार, मुस्तफ़ा माहिर और शराफ़त समीर जैसे न जाने कितने काव्यनिष्ठ नामों के प्रति मेरी प्रणत प्रशंसक हूं। न जाने कितने निदर्शन ऐसे हैं जो मैं व्यक्तिगत तौर पर सुनाता-बताता जाऊं तो एक ऐसी जोरदार और अद्भुत श्रृङ्खला बन जायेगी, जिसकी हर दूसरी कडी हिन्दू-मुस्लिम की होगी। मैं खानक़ाह जाता हूं या महामानवों की मजारों पर सर झुकाता हूं,चादर चढाता हूं तो इसका अर्थ यह हुआ कि मैं हिन्दू नहीं रहा। नहीं साहब! मजहब अपनी जगह है और अक़ीदत अपनी जगह। मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना। लेकिन हमारी सियासत को ऐसा मञ्जूर नहीं लगता। मञ्जूर भी कैसे हो : मुट्ठी भर नासमझों को बरगला कर अपना उल्लू भी तो सीधा करना है। सब सीधे-सादे हों तो पुलिस भूखों मर जाये। पद पर बन आयेगी : यही होगा कि खत्म करो यह महकमा। क्या जरूरत है इनकी। सियासत की भी यही स्थिति है। सब समझदार हो गये तो हर तरह लहर-लहर लहराती-लफाती सुखी सियासत सूख जायेगी। भाषा, वर्ग, जाति, सम्प्रदाय, मजहब, क्षेत्रवादी राजनीति वोटों की फसल काटने को खाद की मानिन्द नारकीय नेताओ के लिये जरूरी है। लेकिन ध्यान रखा जाये कि जैसे एक ही तुक्का हर बार तीर का काम नहीं करता, जैसे एक ही दवाई हर रोग पर हर समय कारगर नहीं हो पाती, जैसे एक ही तरह का भोजन हर कोई हर जगह पसन्द नहीं करता, जैसे एक ही तरह की नीतियां हमेशा सफल नहीं होतीं; वैसे ही सियासत के स्तर पर वोटों की भूखी टुच्ची राजनीति के घृणित हथकण्डे हर स्थान पर हर बार, बार-बार काम नहीं आने। दुष्ट नेताओ की नालायकी जनता समझ चुकी है, बदलाव की बयार चल पडी है लेकिन मैं अब तक यह पूरी तरह समझ नहीं पाया हूं कि शहरी विकास के नाम पर रामपुर नगर के महत्वपूर्ण पहचानप्रतीकों को ध्वस्त करा डालने के आरोपी माननीय मोहम्मद आजम खां का हिन्दुस्तानी सैनिकों की शहादत से सम्बन्धित विवादास्पद बयान महज एक चुनावी हथकण्डा था, वोटों के ध्रुवीकरण की साजिश थी, किसी आला आदमी का अहम इशारा था, हमारी फ़ौज को आत्मिक-नैतिक रूप से कमजोर करने का पूर्वनियोजित प्लान था, कोई तवारीखी बदला था, किसी प्रतिस्पर्धी देश से मिले किसी गुपचुप नजराने का नतीजा था, जाफ़र-जयचन्द जैसी गद्दारी की नयी कडी थी, तुलसी-कबीर और खुसरो-दाराशिकोह के अदब का गला दबाने की चेष्टा थी, बिस्मिल-अश्फ़ाक़ की हमीदाना-शहीदाना रवायत को इतिहास के पन्नों पर झुठलाने का षडयन्त्र था, हिन्दू-मुसलमान को भडकाकर किसी और मुजफ़्फ़रनगर-अलीगढ दङ्गों का नक़्शा तैयार करने की भूमिका थी, किसी वर्गविशेष के दिलों में सदियों से पल रही पारम्परिक दुर्भावनाओ की सम्भावनाओ का सहज-सूक्ष्म प्रक्षेपण था या आने वाली नयी नस्लों के लिये कई-कई पाकिस्तानों के लिये हमारे प्यारे वतन हिन्दुस्तान के उन्नीस सौ सैंतालीसी तक़सीमी सोच का साम्प्रतिक ब्लूप्रिण्ट। आखिर क्या, क्या-क्या? कहीं यह एक और क़ायदे-आजम की तैयारी तो नही!
Subscribe to:
Post Comments (Atom)

No comments:
Post a Comment