आयेंगे...
उजले दिन जरूर आयेंगे…
सचमुच बडा आयोजन था : कवि, रचनाकार और साहित्यकार जैसे कई तबकों के लोग आये थे। जरूर आये होंगे क्योंकि अखबार वालों ने बार-बार लिखा कि अलाने कवि, फलाने रचनाकार, ढिकाने साहित्यकार। मान तो मैं भी लेता औरों की तरह, किन्तु खोपडी तो 'विज्ञान आओ करके सीखें' के शिकञ्जे से अभी तक मोक्ष ही नहीं पा सकी है न! शुरुआती कक्षाओ मे साइंस सीखने का साइड इफ़ेक्ट कम नहीं हुआ अभी। वो तो अच्छा हुआ कि इण्टर के वाइवा के बाद विज्ञान को बाय-बाय कह आये नहीं तो ओशो बाबा की अतर्क्य तर्कशीलता का दुर्धर्ष अध्ययन अभी भी ऐडा ही बनाये रहता लेकिन अब इन अखबारी ऐडों को कौन समझाये कि कवि भी एक रचनाकार है और अन्ततः वह भी साहित्यकार है। कमसे कम काव्यशास्त्र तो यही कहता है। मन तो कभी-कभी करता है कि कभी जाकर इन क़लमकारों से पूछा जाये कि क्या कवि साहित्यकार नहीं होता या ये दो अलग-अलग पद हैं। पद से मेरा मतलब पोस्ट, पैर या सूरदास आदि की किसी पद्यरचना विशेष से न लिया जाये। मुझे एक माक़ूल मसल याद आ गयी : बाप-पूत, साले-बहनोई / मामा-भाञ्जे और न कोई। बताओ कितने लोग? लेकिन कार्यक्रम सचमुच बहुत बडा था क्योंकि उसमें आने वाले लोग बहुत बडे थे और आने वाले लोग इतने बडे थे कि उनमें के एक सम्माननीय स्थानीय साहित्यकार के प्रिण्टेड जीवनवृत्त के साथ उसके घर-परिवार के साथ पत्रव्यवहार का पता भी एक अखबार ने मोटे अक्षरों में ससम्मान-साभार प्रकाशित किया। कार्यक्रम वास्तव में बडा था क्योंकि जहां मोदी माडल को गैलनों पानी पी-पी कर कोसा जाये और मोदी की साम्प्रदायिक करतूतों पर घडों आंसू बहाये जायें और वह क्रियाकर्म बडा न हो, ऐसा कैसे हो सकता है। खास कर तब तो यह और भी युगान्तरकारी महत्व का हो जाता है जब दलित -मुसलमानों के झांसे में आने से मोदी की शाहकारी जीत पर हा-हाकारी ढङ्ग से चिन्ता व्यक्त की जा रही हो कि हाय, अब अपनी दुनिया खत्म धरी समझो। इसलिये जनवादी कविताओ की जरूरत है और जनवादी कविताएं कौन ? जो हम लिखते हैं क्योंकि हम जन-आन्दोलनों के अगुआ हैं। बडा अच्छा है कि आप अगुआ-भगुआ-लगुआ जो भी हैं, लेकिन क्या आपकी आठ लाइनें भी किसी आम आदमी को याद हैं, मूल प्रश्न यह है। कौन सुनता है आपको! कितने जानते हैं आपको! वो तो, जिनको पद्य और गद्य - दोनों की सामान्यतः सामान्य समझ भी नहीं है, वे आपकी पृष्ठनाशी रचनाओ को पार लगा रहे हैं नहीं तो आपका मुख्यधारा के साहित्य का पुराना प्रचारमानक ठिकाने लगते देर नहीं लगनी। इस सन्दर्भ में मुझे नरेन्द्र कोहली बार-बार याद आते हैं हमारे पाठक लाखों हैं तो हम पर लोकप्रिय रचनाधर्मिता का दोषारोपण और आपके मुट्ठी भर भी नहीं तो आप मुख्यधारा के रचनाकार। वास्तव में बडे हैं आप और आपके आयोजन क्योंकि पाठ्यक्रमों में आप, प्रकाशन-श्रृङ्खलाओ मे आप, आयोजनों में आप, अखबारों में आप, यहां आप, वहां आप, पता नहीं कहां-कहां आप। आप जानते हैं कि गैरहाजिरी और बीमारी से भी बडा बना जा सकता है। आप जानते हैं कि कोई शहर बडा नहीं होता और न ही उसे कोई बडा बनाता है : उसे बडा बनाती है वीरेन की कविता। लेकिन मेरे साथी, शायद निराशवादी साथी! आप भले विरोध करो मोदी के सम्पुट का कि अच्छे दिन आने वाले हैं किन्तु मैं हमेशा स्वीकारता हूं अपने वीरेन दा की कविता को कि आयेंगे, उजले दिन जरूर आयेंगे…
@ Dr. Rahul Awasthi
https://twitter.com/Drrahulawasthi
https://drrahulawasthiauthor.blogspot.in/
https://plus.google.com/u/0/112427694916116692546
https://www.facebook.com/pages/Dr-Rahul-Awasthi/401578353273208
उजले दिन जरूर आयेंगे…
सचमुच बडा आयोजन था : कवि, रचनाकार और साहित्यकार जैसे कई तबकों के लोग आये थे। जरूर आये होंगे क्योंकि अखबार वालों ने बार-बार लिखा कि अलाने कवि, फलाने रचनाकार, ढिकाने साहित्यकार। मान तो मैं भी लेता औरों की तरह, किन्तु खोपडी तो 'विज्ञान आओ करके सीखें' के शिकञ्जे से अभी तक मोक्ष ही नहीं पा सकी है न! शुरुआती कक्षाओ मे साइंस सीखने का साइड इफ़ेक्ट कम नहीं हुआ अभी। वो तो अच्छा हुआ कि इण्टर के वाइवा के बाद विज्ञान को बाय-बाय कह आये नहीं तो ओशो बाबा की अतर्क्य तर्कशीलता का दुर्धर्ष अध्ययन अभी भी ऐडा ही बनाये रहता लेकिन अब इन अखबारी ऐडों को कौन समझाये कि कवि भी एक रचनाकार है और अन्ततः वह भी साहित्यकार है। कमसे कम काव्यशास्त्र तो यही कहता है। मन तो कभी-कभी करता है कि कभी जाकर इन क़लमकारों से पूछा जाये कि क्या कवि साहित्यकार नहीं होता या ये दो अलग-अलग पद हैं। पद से मेरा मतलब पोस्ट, पैर या सूरदास आदि की किसी पद्यरचना विशेष से न लिया जाये। मुझे एक माक़ूल मसल याद आ गयी : बाप-पूत, साले-बहनोई / मामा-भाञ्जे और न कोई। बताओ कितने लोग? लेकिन कार्यक्रम सचमुच बहुत बडा था क्योंकि उसमें आने वाले लोग बहुत बडे थे और आने वाले लोग इतने बडे थे कि उनमें के एक सम्माननीय स्थानीय साहित्यकार के प्रिण्टेड जीवनवृत्त के साथ उसके घर-परिवार के साथ पत्रव्यवहार का पता भी एक अखबार ने मोटे अक्षरों में ससम्मान-साभार प्रकाशित किया। कार्यक्रम वास्तव में बडा था क्योंकि जहां मोदी माडल को गैलनों पानी पी-पी कर कोसा जाये और मोदी की साम्प्रदायिक करतूतों पर घडों आंसू बहाये जायें और वह क्रियाकर्म बडा न हो, ऐसा कैसे हो सकता है। खास कर तब तो यह और भी युगान्तरकारी महत्व का हो जाता है जब दलित -मुसलमानों के झांसे में आने से मोदी की शाहकारी जीत पर हा-हाकारी ढङ्ग से चिन्ता व्यक्त की जा रही हो कि हाय, अब अपनी दुनिया खत्म धरी समझो। इसलिये जनवादी कविताओ की जरूरत है और जनवादी कविताएं कौन ? जो हम लिखते हैं क्योंकि हम जन-आन्दोलनों के अगुआ हैं। बडा अच्छा है कि आप अगुआ-भगुआ-लगुआ जो भी हैं, लेकिन क्या आपकी आठ लाइनें भी किसी आम आदमी को याद हैं, मूल प्रश्न यह है। कौन सुनता है आपको! कितने जानते हैं आपको! वो तो, जिनको पद्य और गद्य - दोनों की सामान्यतः सामान्य समझ भी नहीं है, वे आपकी पृष्ठनाशी रचनाओ को पार लगा रहे हैं नहीं तो आपका मुख्यधारा के साहित्य का पुराना प्रचारमानक ठिकाने लगते देर नहीं लगनी। इस सन्दर्भ में मुझे नरेन्द्र कोहली बार-बार याद आते हैं हमारे पाठक लाखों हैं तो हम पर लोकप्रिय रचनाधर्मिता का दोषारोपण और आपके मुट्ठी भर भी नहीं तो आप मुख्यधारा के रचनाकार। वास्तव में बडे हैं आप और आपके आयोजन क्योंकि पाठ्यक्रमों में आप, प्रकाशन-श्रृङ्खलाओ मे आप, आयोजनों में आप, अखबारों में आप, यहां आप, वहां आप, पता नहीं कहां-कहां आप। आप जानते हैं कि गैरहाजिरी और बीमारी से भी बडा बना जा सकता है। आप जानते हैं कि कोई शहर बडा नहीं होता और न ही उसे कोई बडा बनाता है : उसे बडा बनाती है वीरेन की कविता। लेकिन मेरे साथी, शायद निराशवादी साथी! आप भले विरोध करो मोदी के सम्पुट का कि अच्छे दिन आने वाले हैं किन्तु मैं हमेशा स्वीकारता हूं अपने वीरेन दा की कविता को कि आयेंगे, उजले दिन जरूर आयेंगे…
@ Dr. Rahul Awasthi
https://twitter.com/Drrahulawasthi
https://drrahulawasthiauthor.blogspot.in/
https://plus.google.com/u/0/112427694916116692546
https://www.facebook.com/pages/Dr-Rahul-Awasthi/401578353273208

No comments:
Post a Comment