खबर होती नहीं, बनानी पडती है...
बाईचांस आज एक चायकालीन चर्चा सुनने का अलभ्य लाभ मिल गया। कल एक कार्यक्रम था,
जिसकी पूर्वसूचना अखबार
वाले ऐसे छाप रहे थे कि अपने समय का शाहकार हो। आज इस कार्यक्रम को अखबारों ने इस ढङ्ग
से स्पेस दे के छापा है मानो कि मामला स्पांसरशिप का हो। खास कर तब, जब रविवार के नाम पर न जाने
कितनी खास खबरें स्पेस के रोने की भेंट चढा दी जाती हैं। लोगों को लग रहा था कि अमूमन
इतना स्पेस तो किसी बडी घटना के लिये भी नहीं निकलता। व्यावसायिक स्वार्थों के चलते
बहुत सी न्यूजें गायब तक हो जाती हैं। ध्यान तो मेरा भी गया इस बात पर, किन्तु चर्चा निकल आयी तो
बहुत सारे आयाम अपने आप अनावृत होते चले गये जैसे कि ज्यादातर अखबार एक विचारधारा विषेश
के हाथों बेमोल बिके-से रहते हैं। उनकी कोई भी खाडी युद्धीय खबर अमेरिका की तरह अपना
माहौल बनाना जानती है, इङ्गलैण्ड की तरह अपना औपनिवेशिक स्थान बना लेती है और चाइनीज
आइटम की तरह खप-छ्प जाती है। इसी तरह हर शहर में कुछ लोग भी ऐसे होते हैं जिनकी हर
वाह-आह-कराह के लिये समाचार-पत्रों के पन्ने बिछे-से रहते हैं। ऐसे लोगों की क़ब्ज की
समस्या ये अखबार राष्ट्रीय सङ्कट की तरह प्रकाशित करते हैं। इन लोगों के छींक आने का
मतलब है हिमालय की समाधि भङ्ग होने जितनी बडी खबर। ऐसे अखबार बडे परोपकारी हैं क्योंकि
इनके पब्लिशिङ्गवेण्टिलेटरों पर ही कई राष्ट्रीय धरोहर टाइप की शख्सियतों की सांसे
अटकी हैं। सचमुच, सात दिन तक इनकी कोई खबर कहीं न कहीं न छ्पे तो आठवें दिन बडे दुख के साथ इनकी
उठावनी की खबर छापनी पडेगी। हालात ये हैं कि न जाने कितनी न्यूजें निराधार छप रही हैं
और जिन्हें छ्पना चाहिए, वे कूडेदान की शोभा बढाने को बलि दी जा रही हैं। पिछ्ले कुछ
वर्षों से एक और ट्रेण्ड निकला है : किसी भी मुद्दे पर अखबार के आफ़िस या और कहीं इकट्ठा
हो कर डिस्कशन का। पता नहीं इससे क्या उखडा अब तक किन्तु हर बार कुछ कामन चेहरों को
अपने कई-कई जोडी कपडों का सदुपयोग कर अपने पडोसियो पर अपनी बुद्धिजीविता का रौब गालिब
करने का अवसर अवश्य मिल गया। नौसिखुए संवाददाता की मनगढन्त स्टोरी के साथ छपे चिकने
चेहरों की कार्नरीय एलीट बहसों और पाश कालोनियल सोशलाइट महिला ब्रिगेड के पाउडर पोते
प्रीप्लाण्ड पिक्चर आप आराम से किसी भी अखबार में ऊपर ही ऊपर पा सकते हैं लेकिन कोई
शोधोपलब्धि या अकादमिक महत्व का समाचार आपको ऐसी जगह मिलेगा, जहां उसका होना भी बेमानी
हो जायेगा। कक्षाओ में कुक्कुर की कहानी क़ातिलाना तौर पर प्रकाशित होगी किन्तु तङ्ग
और गन्दी गलियों से उभर रहे गुदडी के लाल के सङ्घर्ष की गौरवगाथा इनके लिये कोई महत्व
नहीं रखती। छपे हुए ये अक्षम्य और अछिप अखबारी कारनामे अब इतने वाहियात और विद्रूप्त
लगने लगे हैं कि चिढ-सी होने लगी है। कहां तक बर्दाश्त करेगा कोई, आखिर एक हद तो होती ही है
: विषेशकर तब, जब कहा जाता हो कि अखबार नागरिकचेतना का शिक्षक भी है, समाज का दर्पण भी है और लोकतन्त्र
का चौथा स्तम्भ भी है। अस्तु, सब सुनता रहा मैं। सामान्य तौर पर एक भी तर्क मेरे पास इस बहस
के विरोध में नहीं है। ये अखबार वाले वही तो हैं, जिन्होंने न जाने क्या का क्या करके
रख दिया है! एक गरिमामय परम्परा रही है हमारी पत्रकारिता की; किन्तु मिशनोन्मत्त से व्यसनोन्मुख
साम्प्रतिक पत्रकारिता अब फोटोजेनिक फ़ेस की आवश्यकता के सहारे है। समकालीन पत्रकारिता
का पहला प्रशिक्षणसूत्र अब तो मुझ-जैसे मतिमन्द की खोपडी में भी पैवस्त होने लगा है
कि दुनिया में कहीं कोई खबर होती नहीं, बनानी पडती है : तो फिर बनाये रहो खबरवीरों...
Dr. Rahul Awasthi
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