नरेन्द्र दामोदरदास मोदी का प्रधानमन्त्री बनना उतना बडा शाहकार नहीं है जितना
आम चुनाव-२०१४ के परिणाम अपने आप में शाहकार हैं। खासकर तब, जब बहुमत उसे मिले, जिसका कि लगभग हर पार्टी
पुरजोर विरोध कर रही हो : और बहुमत भी ऐसा-वैसा नहीं, कि केवल सरकार निभाने भर के दांव-पेंच
लड पायें बल्कि बहुमत ऐसा कि विपक्षियों के गुमान झड जायें, विपक्षी पार्टी के कार्यालयों पर
ताले पड जायें, विजेता के कमाल के झण्डे गड जायें और संसद में विपक्ष के लिये लाले पड जायें। जो
सामने आया, उसी की जमानत जब्त। सारे के सारे विपक्षी चारों खाने चित्त। विश्वैतिहास में पहली
बार ऐसा है कि दुनिया के सबसे बडे लोकतन्त्र में विपक्ष के लिये समर्थन की दरकार है।
ऐसा इसलिये ही नहीं हुआ कि राजर्षि विदेह की तरह राजनीतिक जीवन जीते आ रहे नरेन्द्र
की चुनावी रणनीति ऐसी थी, बल्कि इसलिये भी ऐसा हुआ कि भास्वर भास्कर की प्रचण्ड ऊर्ध्वोपलब्धियों
पर कुटिलतापूर्ण निशाना लगाने वालों का यही हाल होता है। आसमान पर थूकने से थूक थूकने
वाले का ही मुंह गन्दा करता है। हां, इसमें दो राय नहीं कि नरेन्द्र भाई की प्रबन्धनदक्षता,
कर्मक्लिष्टता,
सजगसतर्कता,
व्यक्तित्व-सहजता और
दृष्टिप्रखरता ने भाजपा के उस असम्भव स्वप्न को भी साकार कर दिया जिसके लिये सपने में
भी सम्भावना नहीं निकल पा रही थी किन्तु मोदी के विजयाभियान को तीव्रतर करने में सबसे
अधिक निःशुल्क भूमिका उनके जाती दुश्मनों, जानी दुश्मनों और प्रतिस्पर्धियों-प्रतिद्वन्द्वियों
ने ही निर्वाही है। अच्छे दिन आने वाले हैं की मुखालफ़त करने वालों के बारे में आमजन
तय करने लगा था कि किल्विष की भूमिका यही लोग निबाह रहे हैं। राजीव शुक्ला जैसे सियासी
खिलाडियों का स्वर तब हमें खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे वाली मसल याद दिला देता है,
जब वे खीझ भरा व्यङ्ग्यात्मक
बयान बकुरते हैं कि जनता को बधाई क्योंकि अब महंगाई कम हो जायेगी। ऐसे बयान यह बताने
के लिये पर्याप्त हैं कि काङ्ग्रेस का कीमा किसने कूटा है, राहुल भैया को गया-गुजरा कौन कर गुजरा
है, सोनिया
मैया की मिट्टी किसने पलीत की है, कङ्गाली में आटा गीला किसने किया है, प्रियङ्का का बैण्ड-बाजा किनने बजा
दिया है, कपिल
को पिलपिला किसने कर डाला है, दिग्गी की डिग्गी कौन डिगा गया है, किसने श्रीप्रकाश की जय पर सवालों
का कोयला पोत मारा है और किसने सैकडा का जादुई आंकडा दहाई तक समेट दिया है। इतिहास
गवाह है कि जनता को उपेक्षा के हाशिये पर ढकेलने वाले राष्ट्रीय इतिहास के सफ़्हों से
साफ़ हो जाते हैं। मुई खाल की सांस से सार भसम ह्वै जाइ। ध्यान रखना, वक़्त की चोट में आवाज नहीं
होती लेकिन लगती जोर की है। जहां छुओ, आह की आवाज ही आती है। मोदी के क़द और क़दम कम करने के
लिये जुटी और जुडी छितराई हुई क्षेत्रीय कुक्कुरमुत्ती पार्टियों के साथ-साथ कांग्रेस
को भी सबक मिल चुका है, ऐसा बुरी तरह मुंह की खाई इन पराजित पार्टियों के सङ्घटक सूत्र
भी स्वीकार रहे हैं। भूला न जाये, जनाकांक्षाओ की उपेक्षाओ की भित्ति पर चिने जाने वाले महत्वाकांक्षाओ
के महलों के कङ्गूरे बदलाव की बयार में ताश के पत्तों की मानिन्द भरभरा कर ढह जाते
हैं। रह जाता है अकेलेपन को अभिशप्त भयावह मञ्जर, जहां घुग्घुओ की घुघुआहटें,
चमगादडों की चिचियाहटें
और अकुलाती आत्माओ की आहटें आगत को आवाज लगाया करती हैं किन्तु मरने आना कोई नहीं चाहता।
जो शासक शासित शोषित का त्रासक हो जाता है : वह शासक ध्वंसों के अंधियारों में खो जाता
है। जो शासित के पोषण-रक्षण हित जीता-मरता है : काल उसी शासक का जय-जयकार किया करता
है।
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