जाति पूछिए त्रसित की : तभी सोचिए न्याय
जो मन में हो, वो कर लो बान की मून! चाहे जो कह ले महिला आयोग! लेकिन होगा वही, जो सूबेदार चाहेंगे। सूबे में त्राहि-त्राहि है। बिजली के तारों पर कपडे सूख रहे हैं, पानी की टंकियां प्यासी हैं, टोंटिया गुर्रा रही हैं, हलाली फ़र्श पर है, दलाली अर्श पर। ईमानदारी और मेहनत-मजदूरी का फल मटियामेट हुआ जा रहा है लेकिन चोरी, सीनाजोरी और हरामखोरी चरम पर। पुलिस पहले पूछती है कि कौन जात हो वादीजी! और फिर वैसा न्याय। किसान की राह आसान नहीं। अन्नदाता निरन्न मर रहा है। भर्ती-दर-भर्ती न जाने किस आस और अवसर के लिये रद। शिक्षा के क्षेत्र में नक़ल-माफ़ियाओ के क्या कहने। कितने नम्बर चाहिए, बस बोलो। सत्तापक्ष का स्टूडेण्ट गुण्डा जिस समय आये, परीक्षा दे जाये, चाकू-कट्टा लहराये, कैम्पस में मोटरसाइकिल लहरा-लहरा के चलाये, पेपरों में हूटर बजाये, क़िताब आंखों के सामने तक न लाये लेकिन जब रिजल्ट आये तो विश्वविद्यालय में कार्यरत प्रभावी प्रभारीजी के बाबूजी का ही नाम टाप आफ़ द टाप में आये। अपराधियों की पौ बारह है, खादी, खाक़ी और काले कोट तो सत्ता के दबङ्गों की खिचमिचदारी में हैं ही, सफ़ेद कोट वाले भी कौन दूध के धुले बचे हैं! मरों मरीजों! मैंने कहा था कि बीमार पडो। जिस वर्ग विशेष की सरकार आ जाये, नियुक्तियों में उसी नामरूप के लोग जलवाअफ़रोज होते मिलने लगते हैं। नियुक्तियां भी आमतौर पर उन्हीं की, जिनकी कहीं भी, कैसे भी, कोई भी और कभी भी नहीं होनी चाहिए थीं। उच्च शिक्षा इतनी निम्न हो चली है कि अकादमिक उन्नति और शोध का अल्लाह मालिक है। किसी को हर अर्हता-योग्यता के बाद नियुक्ति नहीं और किसी सत्ताधारी के सजातीय कृपापात्र की कन्या को बिना किसी अर्हता-शर्त-नियुक्ति : और नियुक्ति भी ऐसी नहीं, नियुक्ति ऐसी कि रातोंरात खुद जिलाधीशजी आकर एक विभाग की पोस्ट मिटा-हटा कर दूसरे विभाग में एडजस्ट-क्रिएट कर ज्वाइन भी करा जायें। लेकिन सुश्री की ऐसी क़ाबिलियत की क़द्र यहीं तक नहीं, मैडमजी महीने-महीने बाद साइनार्थ दर्शन देने की कृपा करने आ जायें, बस। मुझे तो हरिशङ्कर परसाई के व्यङ्ग्यसङ्ग्रह 'कागभगोडा' का इण्टरव्यू पर एक व्यङ्ग्यलेख याद आता है। हर इण्टरव्यूआर्थी के पढने-योग्य। नयी नियुक्तियों में धांधली रेकार्ड क़ायम कर रही है। किसी का बगैर चढावा चढाये हो जाये काम, ऐसा अब सम्भव नहीं लगता। मान लो हो भी जाये तो कोई मानने को तैयार नहीं होगा : उसे घपलेबाजी और सन्देह की नजर से ही देखा जाना चाहिए क्योंकि परम्पराविच्छिन्न चीज आम तौर पर तआज्जुबतलब ही होती है। लैबें खाली पडी हैं, उनमें काक्रोच और चूहे प्रयोगरत हैं। आरडीसी बैठकें बन्द हैं। जेआरफ़िए फ़ुक्के कर दिये गये हैं। पुराने प्रोफ़ेसर सेवानिवृत्ति के बाद संविदा पर लगाये-लाये जा रहे हैं। नयी लगन, नये विजन, नये सृजन के लिये सारे दरवाजे बन्द करना प्राथमिकता में है। हां, नयी पीढी को नाकारा करने की पूरी तैयारी है। किसी सरकार को सबसे ज्यादा खतरा नौजवान चेतना से ही होता है, न जाने कब क्या कर बैठे : तो बजट रोजगार देने के नाम पर नहीं, बेरोजगारी भत्ता देने के नाम पर ठिकाने लगाओ, नयी पीढी अपने आप ठिकाने लग जायेगी। आरामतलबी की अफ़ीम आदमी को बरबाद कर देती है। पडे-पडे मौज मारने के आदी किसी लायक नहीं बचते। अब बताओ कि कौन करेगा क्रान्ति सत्ता की मनमानियों के विरुद्ध! लैपटाप दे दो ऐसी-वैसी फ़िल्में देखने को। मन तो मन है : वो भी नौजवान का। जैसा देखेगा, वैसा सीखेगा, बाद में वैसा ही करेगा। फिर दोष किसी को क्या देना! क्या परिवार को, क्या समाज को, क्या स्कूल को, क्या क़ानून को।
क़ानूनव्यवस्था वैसे ही चौपट है, अस्मिता का सङ्कट तो कहो ही मत। स्त्री तो स्त्री, आबालवृद्ध कोई सुरक्षित नहीं। हो भी कैसे, नेताजी ने तो मानवमन की मजबूरी बता ही दी थी कि गलतियों का क्या, वो तो हो ही जाती हैं। यद्यपि गलतियों के नाम पर कुछ भी होता रहे, ये नेताजी के लिये कोई मार्के की बात नहीं तो भी बहू-बेटियों की चिन्ता करके ही बोलना चाहिए। ऐसे बयानों से हुडारते सांडों से बहू-बेटियों को खतरा ही खतरा है, खासकर उन्हें, जो बेटी-बहू सीधी सिम्पल हैं। नेताजी को ऐसी घटनाओ का कोई अफ़सोस नहीं होना तो भी यह अच्छा ही हुआ कि उस समय मोदी प्रधानमन्त्री नहीं बने थे, नहीं तो गलतियों का ठीकरा उनके खाते में डाला जा सकता था और कहा जाता कि मैनपुरी, आजमगढ, इटावा, फ़िरोजाबाद, बदायूं और कन्नौज में गलती नहीं होती और न होनी चाहिए, बाक़ी कहीं भी हो। गलती के लिये औरों को आरोपित करने में भी क्या जाता है, भले ही गलती को नेताजी अपराध, असामान्य और दण्डनीय नहीं मानते। बलात्कृत बहनों को आरोपितों द्वारा पेड पर जिन्दा लटका देने के लिये देश भर में चर्चाया कटरा-शहादतगञ्ज बदायूं जनपद में पडता है। नेताजी कल को कह सकते हैं कि देखो, जहां ऐसा हुआ है, वो बदायूं का हिस्सा हो कर भी हमारे भतीजे का संसदीय क्षेत्र नहीं; वहां से तो भाजपा निकली है न! राजनाथ सिंह जानें; ठीक वैसे ही, जैसा बताते हैं कि कहा गया है - बिजली अब अमित शाह देंगे गुजरात से। उनसे ही कहा जाये। पांच संसदीय सीटों के अलावा कहीं के मतदाता-नागरिक यूपी के मूलभूत संसाधनों के हक़दार नहीं। सुना है कि ऐसा यूपी के क़ायदे-आजम कह रहे हैं : ये वही हैं, जो वोटों के लिये शहादत के नाम पर हमारी क़ौमी यकजहती को बदनाम करने से भी बाज नहीं आये। सरकार के सपने क्या ऐसे ही सच होंगे साहब! लोहियाजी कहा करते थे कि हमारी पार्टी ही हमारा परिवार है। उनके विचारवर्द कहते दीखते हैं कि हमारा परिवार ही हमारी पार्टी है। जनता ने भी जैसे मान ही लिया ये। परिवारीजनों को छोडकर किसी कैण्डीडेट को नहीं छोडा। देखो, बैलेट बुलेट से कहीं-कहीं ज्यादा खातक, कई-कई गुना असरदार होता है। जैसे बीमाकर्मी, यमदूत, दुश्मन, सर्प, तोता और नेता अपना अवसर आने पर नहीं चूकते; वैसे ही जनता भी अपने ढङ्ग से सबसे निपट लेती है। जनता मतदान के वक़्त प्रायः किसी को नहीं बख्शती। वो भी पेड पर ही लटका के मारती है। लोकतान्त्रिक चुनावों का इतिहास तो यही कहता है। तो चेतो नेताजी!
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