Saturday, 31 May 2014

एक और क़ायदे-आजम


मेरे कई मुस्लिम मित्र हैं : सहपाठी भी, परिचित भी। हम बहुत बार साथ होते हैं : तब, जब हमारी मजहबी मान्यताएं सर्वशक्तिमान सत्ता के प्रति प्रत्यक्षतः प्रणताकार हो रही होती हैं, किन्तु ऐसी स्थितियां कभी भी हमारे बीच परिवाद, परिहास और परस्पर उपेक्षा का कारण नहीं बन सकीं। मैं मुशायरों-कविसम्मेलनों में निजामत-सञ्चालन के दौरान सबसे पहले प्रायः नात-ए-पाक़ पढाता रहा हूं और कोशिश करता रहा हूं कि सर नङ्गा न रहे; लेकिन इससे मेरी सनातनी आस्था आज तक न खण्डित हुई, न बाधित। शारद-वन्दन के दौरान मेरे शायर मित्र हमेशा सहयोग करने का प्रयत्न करते हैं, लेकिन वे आज भी मुसलमान ही हैं। बहुत बार मैं किसी इस्लामपन्थी रचनाकार से सरस्वतीवन्दनानिवेदन करा लेता हूं और हिन्दूधर्मानुयायी से  हम्द-ओ-नात-शरीफ़ पढवा लेता हूं परन्तु किसी ने न कभी विरोध किया और न कोई क़ाफ़िर या विधर्मी बना। आयोजनों या यात्राओ में प्रयास करता हूं कि नमाज पढने के क्रम में उनका निश्शब्द सहयोग हो सके। मेरा कोई मुस्लिम मित्र मेरे पूजा-पाठ के अनन्तर आ जाता है तो वह इतना शान्त सहयोग करता है कि लगता है, यही प्रत्यक्ष पूजा कर रहा है। किसी की इबादत में कैसा भी खलल न डालना इबादत का उत्कृष्टतम रूप है। तबर्रुक़ तक़सीम होता है तो मैं खजूर जरूर लेता हूं और जब मैं पूजा के उपरान्त प्रसाद वितरित करता हूं तो मेरे मुस्लिम मित्र मांग-मांग के ग्रहण करते हैं। एक-दो बार अपने ऐसे परिचितों-दोस्तों से एहतियातन पूछने की हिम्मत की कि क्या प्रसाद ले सकते हैं, तो हमेशा भर्त्सना का शिकार हुआ हूं, हडका लिया गया हूं कि क्यों नहीं लेंगे। देना न चाहोगे तो भी ले लेंगे : लूटकर भी। ऐसे अवसरों पर हमेशा अंसुआ आया हूं; ठीक वैसे ही, जैसे सत्यनारायण की कथा, हवन और पूजा-पाठ के कई अवसरों पर पापा रफ़ीक़ ताऊजी, नसरुद्दी दउवा, झन्नन अङ्कल और मुन्ना चाचा की ऐसी डांट-डपट और झिडकियों से भर आया करते थे। रफ़ीक़ ताऊ पञ्चामृत के प्रेमी थे। उनके न रहने की खबर पर हमारे घर में भी गमी का कैसा माहौल हो आया था, वह बचपन की याद अभी तक धुंधलाई नहीं है। झन्नन अङ्कल रामेश्वरम से प्रसाद में ताऊजी के लिये उनका नाम लिखा शङ्ख और तुलसीमाल लाये थे और ताईजी के लिये सिन्दूर। उनका दिया हुआ एक गमछा भी अभी तक हमारे घर में तबर्रुक़ के तौर पर सुरक्षित है। इसका अर्थ ये तो नहीं कि वे मुस्लिम नहीं रहे थे। नसरुद्दी दउवा इस्लामपन्थी अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जो आज भी हम हिन्दुओ के बीच गांव में आराम से रह रहे हैं। पिछली ईसवी सदी के अन्तिम दशक में सारे के सारे मुसलमान परिवार एक आदमी के बरगलाने पर नाहक ही गांव छोड कर चले गये। नसरुद्दी दउवा को भी ले जाने की पुरजोर कोशिश की और न जाने क्या-क्या कहा किन्तु उन्होंने जाने से मना कर दिया और कहा कि यहीं पैदा हुआ, यहीं मरूंगा। अब जाऊंगा कहीं नहीं। समय काटने को अपना पुराना शौक़ आजमाते हैं : बकरी चराते हैं। थोडा बहुत अपने खेतों में हिन्दू बटाईदारों की देख-रेख में जाते हैं और दोनों वक़्त का खाना हिन्दू भाइयों-भतीजों, नाती-पोतों के घर हिन्दू बहुओ-बेटियों का बना खाते हैं। मौक़ा पाते हैं तो थपडिया भी देते हैं शैतानी करते बालकों को; लेकिन क्या मजाल कि कोई उन्हें चूं कर जाये। मुन्ना चाचा की त्यॊहारी बिना हमारी होली-दिवाली अधूरी है,  उनकी मिठाई-भुरकी और खील-खिलौनों के बिना पूरे गांव की भैयादूज असम्भव है। हमारा हर मङ्गल-कारज उनकी बाट जोहता है। हक़ीम-दस्तूर वाले हैदर ताऊ भी नहीं रहे, जो तहेरे भाई और मेरे यज्ञोपवीत में सबसे पहले ही निमन्त्रणपत्र के अधिकारी थे। न जाने कितने निदर्शन ऐसे हैं जो मैं व्यक्तिगत तौर पर सुनाता-बताता जाऊं तो एक ऐसी जोरदार और अद्भुत श्रृङ्खला बन जायेगी, जिसकी हर दूसरी कडी हिन्दू-मुस्लिम की होगी। मैं खानक़ाह जाता हूं या महामानवों की मजारों पर सर झुकाता हूं,चादर चढाता हूं तो इसका अर्थ यह हुआ कि मैं हिन्दू नहीं रहा। नहीं साहब! मजहब अपनी जगह है और अक़ीदत अपनी जगह। मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना। लेकिन हमारी सियासत को ऐसा मञ्जूर नहीं लगता। मञ्जूर भी कैसे हो : मुट्ठी भर नासमझों को बरगला कर अपना उल्लू भी तो सीधा करना है। सब सीधे-सादे हों तो पुलिस भूखों मर जाये। पद पर बन आयेगी : यही होगा कि खत्म करो यह महकमा। क्या जरूरत है इनकी। सियासत की भी यही स्थिति है। सब समझदार हो गये तो हर तरह लहर-लहर लहराती-लफाती सुखी सियासत सूख जायेगी। भाषा, वर्ग, जाति, सम्प्रदाय, मजहब, क्षेत्रवादी राजनीति वोटों की फसल काटने को खाद की मानिन्द नारकीय नेताओ के लिये जरूरी है। लेकिन ध्यान रखा जाये कि जैसे एक ही तुक्का हर बार तीर का काम नहीं करता, जैसे एक ही दवाई हर रोग पर हर समय काम नहीं आती, जैसे एक ही तरह का भोजन हर कोई हर जगह पसन्द नहीं करता, जैसे एक ही तरह की नीतियां हमेशा सफल नहीं होतीं; वैसे ही सियासत के स्तर पर वोटों की भूखी टुच्ची राजनीति के घृणित हथकण्डे हर स्थान पर हर बार, बार-बार काम नहीं आने। नेताओ की नालयकी जनता समझ चुकी है, बदलाव की बयार चल पडी है लेकिन मैं अब तक यह पूरी तरह समझ नहीं पाया हूं कि शहरी विकास के नाम पर रामपुर नगर के महत्वपूर्ण पहचानप्रतीकों को ध्वस्त करा डालने के आरोपी माननीय मोहम्मद आजम खां का हिन्दुस्तानी सैनिकों की शहादत से सम्बन्धित विवादास्पद बयान महज एक चुनावी हथकण्डा था, वोटों के ध्रुवीकरण की साजिश थी, हमारी फ़ौज को आत्मिक-नैतिक रूप से कमजोर करने का पूर्वनियोजित प्लान था, कोई तवारीखी बदला था, किसी प्रतिस्पर्धी देश से मिले किसी गुपचुप नजराने का नतीजा था, जाफ़र-जयचन्द जैसी गद्दारी की नयी कडी थी, तुलसी-रसखान के अदब का गला दबाने की चेष्टा थी, बिस्मिल-अश्फ़ाक़ की शहीदाना रवायत को इतिहास के पन्नों पर झुठलाने का षडयन्त्र था, हिन्दू-मुसलमान को भडकाकर किसी और मुजफ़्फ़रनगर-अलीगढ दङ्गों की भूमिका थी या किसी वर्गविशेष के दिलों में सदियों से पल रही पारम्परिक दुर्भावनाओ की सम्भावनाओ का सहज-सूक्ष्म प्रक्षेपण था या आने वाली नयी नस्लों के लिये कई-कई पाकिस्तानों के लिये हमारे प्यारे वतन हिन्दुस्तान के उन्नीस सौ सैंतालीसी तक़सीमी सोच का साम्प्रतिक ब्लूप्रिण्ट। आखिर क्या, क्या-क्या? कहीं यह एक और क़ायदे-आजम की तैयारी तो नही!

No comments:

Post a Comment