टीचर के रिटायर होने की कोई उम्र नहीं होती। सीखना-सिखाना कहीं उम्र का मोहताज होता है। आयुर्वर्धन और कार्यक्षमताघटन में व्युत्क्रमानुपतिक सम्बन्ध है और शिक्षण का कार्य कोई सेना का मुआमला तो है नहीं कि शारीरिक फ़िटनेस को निगाहते हुए सही समय से रंगरूटों को रिटायर कर दिया। नहीं तो पता चले शिकार के समय कुतिया हगासी। दुश्मन सामने है और सैनिक साहब मोतियाबिन्दी आंखों से लोकेशन अन्दाजते हुए कंपकंपाते हाथों से स्टेनगन की लिबलिबी रह-रह दबा रहे हैं कि गोली गलत जगह न दग जाये, या एयरमैनजी पैराशूट चढाये बिना निकल लिये, या कोस्टगार्ड महोदय लाइफ़जैकेट बिना ही अतल गहराइयों को नापने महासागर में उतर गये। यह हंसने की बात नहीं। शारीरिक क्षमताएं समय के साथ घटती जाती हैं इसीलिये विशेषतः शारीरिक सामर्थ्याधारित सेवाओ के क्षेत्र में सेवानिवृत्ति का समय और क्षेत्रों की अपेक्षा पहले निश्चित कर दिया गया है। सेना आदि क्षेत्रों में यह व्यवस्था आवश्यक है। पढने-पढाने का क्या, जब मौक़ा निकाल लो। स्टीफन हाकिङ्ग को देखो, शरीरबाधित होने के बावजूद सारा जीवन कुर्सी पर ही निकाले ही सिद्धान्तनिरूपण करते रहे। प्रोफ़ेसरों, वैज्ञानिकों, हलवाइयों, दर्जियों, पुतइयों, थवइयों आदि का क्या, जब तक दिल, दिमाग, देह में दम रहे, डते रहें। देख रहे हो मोदीजी को, इस अवस्था में भी गदर। सबसे चौकस, सब पर भारी। एनडी तिवारी और दिग्गी को देख लो। साठा से उपाठा पर भी पाठा; लेकिन क्या किया जाये इस सरकारी व्यवस्था का, एक दिन छुट्टी करके ही मानती है। अरे भाई! शिक्षा तो अनुभवों का कोश है। जितनी अधिक आयु, उतना अधिक अनुभव। बहुत कुछ तो उम्र ही सिखा देती है। धूप में बाल सफ़ेद करने का मुहावरा ऐसे ही नहीं चलता लेकिन बूढे तोते क्या सीखेंगे, इनकार तो सामान्यतः इस कहावत से भी नहीं किया जा सकता। नयी उम्र जो कुछ सीख और कर सकती है, वह बहुत पुरानी और बहुत नयी उम्र कर नहीं सकती। नरेन्द्र दामोदरदास मोदी भी अपनी ताबडतोड क़ामयाबी की कमान युवा पीढी को ही थमा दिये। हर प्राणी, खासकर मनुष्य की एक उम्रविशेष दैहिक-मानसिक दक्षताओ की शिखरोपलब्धियों की होती है और यह उम्रविशेष आमतौर पर युवता-प्रौढता की ही होती है। इससे इतर में कर्मचेष्टाओ और उपलब्धियों का अनुपात गडबडा जाता है; इसीलिये दुनिया के लगभग सभी सभ्यतासम्पन्न देशों ने अपने-अपने यहां मानव संसाधनों का सम्यक् उपयोग करने के लिये विभिन्न नागरिक सेवाओ में आयुकारक को विशेष महत्ता दी है और अन्ततः एक सामान्य स्वीकृत अवस्थाबिन्दु पर अधिवर्षिता का विधान किया है। हमारे देश की सरकार को मानव संसाधनों और उनके सम्यक् उपयोग की कोई आवश्यकता नहीं। उसे अपनी डेढ टांग की पकाने से ही फ़ुर्सत नहीं।
सन्दर्भ है राज्य सरकार की उस योजना का, जिसमें रिटायर हो चुके चुके प्राध्यापकों को संविदा के क्रम में बाइस हजार रुपये मानदेय पर उनकी आयु के सत्तरवें साल तक अनुदानित महाविद्यालयों में नियुक्त करने की योजना है। एशिया के प्राचीनतम और सङ्ख्याधार पर दीर्घतम कालेजों में एक बरेली कालेज से इसके विरोध में आवाजें उठी हैं। यह विरोध तब और धारदार-जोरदार और प्रासंगिक हो जाता है, जब पूर्व कुलपति और बरेली कालेज के सम्प्रति प्राचार्य इस विरोध में अपनी आवाज मिला देते हैं। वे अपने समय के वरिष्ठतम शिक्षाशाह हैं। ऐसे में, जब उच्च शिक्षा का ग्राफ पिछले दस-बीस सालों में रसातल की ओर चला गया है, उच्च शिक्षा अधिकारी और मीडिया की मौजूदगी में उनका यह कहना वर्तमान व्यवस्था और सरकार के आदेश पर यक्षप्रश्न खडे कर देता है कि जिन्होंने जिन्दगी भर नहीं पढाया, वे अब क्या पढायेंगे! जो लोग चालीस-चालीस साल की सरकारी सेवा में चालीस मिनट के चालीस पीरियड कभी गम्भीरता से लिये बिना निकल लिये, वे अब उच्च शिक्षा सम्वर्धन क्या खाक़ करेंगे! एक-दो लोग तो दो-दो जगह से सैलरी उठाते रहे हैं, उनसे अब इस सन्दर्भ में ईमानदारी की क्या अपेक्षा की जायेगी! डा० सिंह की इस बात को किसी व्यक्तिगत सन्दर्भ देते हुए भले ही हल्के में ले लिया जाये, किन्तु उनके पूरे बयान को सिरे से नकारा नहीं जा सकता। जो युवा उच्च शिक्षा में अपने जीवन के भरे-पूरे वर्ष बिताकर, अपनी एक उम्र गुजारकर आया है, अब वो कहां जायेगा! उसको मौक़ा देने की बजाय खटियाती पीढी को ट्रैक पर दौडाने लाया जा रहा है। यह न केवल कुण्ठा और असन्तोष उपजायेगा, अपितु बेरोजगारी की समस्या को और बढायेगा। उपयोगिता और योग्यता का मतलब भले ही सरकार भली प्रकार समझती हो, लेकिन उपयोगिता और योग्यता - दोनों का राष्ट्र-समाजहित में उपयोग में उसका नजरिया तुगलकी है : मूर्खता और पागलपन से भरा। लेकिन भूला न जाये, तुगलकी सनकें और हिटलरी मिजाज किसी सत्ता के पतन के लिये पर्याप्ततम कारक होते हैं। अखिलेश की सरकार के अब 'अखिलेश सरकार' ही मालिक हैं, क्योंकि कहा गया था कि यह सरकार युवाओ की निर्मिति है और यह युवाओ के लिये कुछ न कुछ करेगी; किन्तु युवाओ के साथ कुछ ऐसा करेगी, किसी ने ऐसा नहीं सोचा था। हर मानक ताक पर, हर भर्ती गर्त में। रही उच्च शिक्षा की बात तो, युवा उत्साह और जोश के लिये पीएचडी की डिग्री और नेट के उस सर्टीफ़िकेट का क्या महत्व बचा, जो उसने देह गला कर, दिल जला कर और खून सुखा कर इस क्षेत्र में सरकारी सेवा के लिये अचीव किया और जिसे सरकार ने अनिवार्य कर रखा है प्राध्यापकीय सेवा के लिये। मौजूं मुद्दा तो यह भी है कि ज्यादातर रिटायर्ड डिग्री टीचर पीएचडी-नेट नहीं हैं। अचरज तो यह है कि प्राइवेट कालेजों में प्रशासनिक काम कर रहे बरेली कालेज से सेवानिवृत्त कई शिक्षक वहां की तनख्वाह से कम पर यहां मानदेय पर आने को तैयार बैठे हैं, जिनमें से ज्यादातर कल इस निमित्त होने वाले साक्षात्कार में शामिल होने पहुंचे भी। सोचने वाली बात है कि ऐसा क्या है बरेली कालेज में, जो लोग यहां हर हाल में आना चाहते हैं! यहां का अकादमिक काम आकर्षणीय है या आराम!
जाहिरा तौर पर विश्वविद्यालय बनने की कगार पर बैठे इस कालेज का एक सौ अठहत्तर वर्षीय गौरवमय इतिहास है। अट्ठारह सौ सत्तावन के प्रथम स्वातन्त्र्यसमर में इसके परिजनों की भूमिका अत्यन्त महत्व की रही है। काला पानी की पहली सजा यहीं से हुई थी किन्तु आज अजीब हालात हैं इसके। अपुष्ट सूत्र बताते हैं कि यह अब तक विश्वविद्यालय हो चुका होता किन्तु इसके विश्वविद्यालय बनने के रास्ते में इसके कई अपनों के ही हित टकरा रहे थे सो उनने कगार नीचे से ढहा दी। कितने कष्ट की बात है कि यहां के सामान्य संविदा शिक्षकों को आज भी आठ महीने का ही मानदेय मिल पाता है, वह भी प्रायः पूरा नही। चौंकाने वाली बात यह भी है कि यहां कुछ विशिष्ट टेम्परेरी टीचर का वेतन बहत्तर हजार, सत्तर हजार, साठ हजार है तो कुछ का मानदेय आठ हजार भी नहीं। एक प्रश्न यह जरूर चिन्तनीय है कि सेवानिवृत्त संविदा शिक्षकों को अगर बीस से पच्चीस हजार मानदेय मिलेगा तो क्या अन्य संविदा शिक्षकों के साथ भी ऐसा न्याय हो सकेगा! दूसरी बात ये कि क्या इतने में उन्हें अपना अपमान नहीं दिख रहा! कोई स्वाभिमानी सेवानिवृत्त शिक्षक तो दुबारा ऐसा करने को आना नहीं और न ही राजी होगा वह नयी नस्ल की राह छेंकने की शर्त पर। तीसरी चीज यह है कि क्या उनकी वित्तीय नियमितता को भी सरकारी संज्ञान में लिया जायेगा जो आध-पौन लाख पेंशन पहले ही पा रहे हैं! डा० सिंह का यह कहना भी रेखाङ्कनयोग्य है कि सोर्स प्रबन्धन पैदा करता है, तो नियुक्ति का अधिकार उससे क्यों छीना गया? खासकर तब, जब कमीशन कोई काम ही नहीं कर रहा है! सच तो यह है कि कमीशन मिशन कमीशन के तहत चला गया है। लक्ष्मी लक्ष्मी को खींचती है, इससे तो यही लगना है। सरस्वती-लक्ष्मी का तो वैर वैसे ही बताया जाता रहा है। गरीब और गरीब, अमीर और अमीर। अखिलेशजी, समाजवाद यही है न! नहीं न!, तो क्यों सूपडा साफ़ करवाने पे तुले हो...
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