मेरे कई मुस्लिम मित्र हैं : सहपाठी भी, परिचित भी। हम बहुत बार साथ होते हैं : तब, जब हमारी मजहबी मान्यताएं सर्वशक्तिमान सत्ता के प्रति प्रत्यक्षतः प्रणताकार हो रही होती हैं, किन्तु ऐसी स्थितियां कभी भी हमारे बीच परिवाद, परिहास और परस्पर उपेक्षा का कारण नहीं बन सकीं। मैं मुशायरों-कविसम्मेलनों में निजामत-सञ्चालन के दौरान सबसे पहले प्रायः नात-ए-पाक़ पढाता रहा हूं और कोशिश करता रहा हूं कि सर नङ्गा न रहे; लेकिन इससे मेरी सनातनी आस्था आज तक न खण्डित हुई, न बाधित। शारद-वन्दन के दौरान मेरे शायर मित्र हमेशा सहयोग करने का प्रयत्न करते हैं, लेकिन वे आज भी मुसलमान ही हैं। बहुत बार मैं किसी इस्लामपन्थी रचनाकार से सरस्वतीवन्दनानिवेदन करा लेता हूं और हिन्दूधर्मानुयायी से हम्द-ओ-नात-शरीफ़ पढवा लेता हूं परन्तु किसी ने न कभी विरोध किया और न कोई क़ाफ़िर या विधर्मी बना। आयोजनों या यात्राओ में प्रयास करता हूं कि नमाज पढने के क्रम में उनका निश्शब्द सहयोग हो सके। मेरा कोई मुस्लिम मित्र मेरे पूजा-पाठ के अनन्तर आ जाता है तो वह इतना शान्त सहयोग करता है कि लगता है, यही पक्की प्रत्यक्ष पूजा कर रहा है। किसी की इबादत में कैसा भी खलल न डालना इबादत का उत्कृष्टतम रूप है। मैं विशुद्ध शाकाहारी हूं : लहसुन-प्याज तक से परहेज करने वाले परिवार से। खानपान के प्रति बेहद चूजी; किन्तु जब तबर्रुक़ तक़सीम होता है तो मैं खजूर जरूर लेता हूं और जब मैं पूजा के उपरान्त प्रसाद वितरित करता हूं तो मेरे मुस्लिम मित्र मांग-मांग के ग्रहण करते हैं। एक-दो बार जब भी अपने ऐसे परिचितों-दोस्तों से एहतियातन पूछने की हिम्मत की है कि क्या प्रसाद ले सकते हैं, तो हमेशा उनके द्वारा तीखी भर्त्सना का शिकार हुआ हूं, हडका लिया गया हूं और इस तञ्जिया सवाल का शिकार हुआ हूं कि क्यों नहीं लेंगे। देना न चाहोगे तो भी ले लेंगे : लूटकर भी। मैं ऐसे अवसरों पर हमेशा अंसुआ आया हूं; ठीक वैसे ही, जैसे सत्यनारायण की कथा, हवन और पूजा-पाठ के कई अवसरों पर पापा रफ़ीक़ ताऊजी, नसरुद्दी दउवा, झन्नन अङ्कल और मुन्ना चाचा की ऐसी डांट-डपट और झिडकियों से भर आया करते थे। रफ़ीक़ ताऊ पञ्चामृत के प्रेमी थे। उनके न रहने की खबर पर हमारे घर में भी गमी का कैसा माहौल हो आया था, वह बचपन की याद अभी तक धुंधलाई नहीं है। झन्नन अङ्कल रामेश्वरम से प्रसाद में ताऊजी के लिये उनका नाम लिखा शङ्ख और तुलसीमाल लाये थे और ताईजी के लिये सिन्दूर। उनका दिया हुआ एक गमछा भी अभी तक हमारे घर में तबर्रुक़ के तौर पर सुरक्षित है। इसका अर्थ ये तो नहीं कि वे मुस्लिम नहीं रहे थे और हम हिन्दू। नसरुद्दी दउवा हमारे गांव में इस्लामपन्थी अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जो आज भी हम हिन्दुओ के बीच आराम से रह रहे हैं। पिछली ईसवी सदी के अन्तिम दशक में सारे के सारे मुसलमान परिवार एक आदमी के बरगलाने पर नाहक ही गांव छोड कर चले गये। नसरुद्दी दउवा को भी ले जाने की पुरजोर कोशिश की और न जाने क्या-क्या कहा किन्तु उन्होंने जाने से मना कर दिया और कहा कि यहीं पैदा हुआ, यहीं मरूंगा। अब जाऊंगा कहीं नहीं। समय काटने को अपना पुराना शौक़ आजमाते हैं : बकरी चराते हैं। थोडा-बहुत अपने खेतों में हिन्दू बटाईदारों की देख-रेख में जाते हैं और दोनों वक़्त का खाना हिन्दू भाइयों-भतीजों, नाती-पोतों के घर हिन्दू बहुओ-बेटियों का बना खाते हैं। मौक़ा पाते हैं तो थपडिया भी देते हैं शैतानी करते बालकों को; लेकिन क्या मजाल कि कोई उन्हें चूं कर जाये। मुन्ना चाचा की त्यॊहारी बिना हमारी होली-दिवाली अधूरी है, उनकी मिठाई-भुरकी और खील-खिलौनों के बिना पूरे गांव की भैयादूज असम्भव है। हमारा हर मङ्गल-कारज उनकी बाट जोहता है। हक़ीम-दस्तूर वाले हैदर ताऊ भी नहीं रहे, जो तहेरे भाई और मेरे यज्ञोपवीत में सबसे पहले ही निमन्त्रणपत्र के अधिकारी थे। मैं मूलतः अवधक्षेत्रवासी हूं। मेरा उर्दू-उच्चारण कमजोर रहा। मेरे मित्र डा० हुमायूं मुश्ताक़ से जबान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला के लफ़्जों के तलफ़्फ़ुज को उम्दा बनाने में यक़ीनी तौर पर मदद मिली। वे मुझसे कभी-कभार हिन्दीशब्दावली और उसकी रेञ्ज पर विमर्श कर लिया करते थे। मैं जहां बरेली कालेज के बोर्ड आफ़ कण्ट्रोल के वरिष्ठतम सदस्य जनाब जे.एन.सक्सेना की नफ़ीस उर्दूबयानी का मैं दीवाना हूं, वहीं अपने कई मुस्लिम मित्रों के शुद्ध हिन्दीज्ञान का भक्त। अपने दोस्त मुजक़्क़िर अली जैदी गुलशन से इस्लाम पन्थ की ऐतिहासिक जानकारी और उसकी बारीक़ियों से बाबस्ता होने की कोशिश करता हूं तो वहीं कई शायर साथियों से अदब में फ़न-ए-अरूज और कहन-तगज्जुल पर भी तज्क़िरा और मश्विरा कर लेता हूं। मुल्ला दाउद और मलिक मोहम्मद जायसी, क़ुतुबन-मञ्झन, उस्मान-रहीम-रसखान की रवायत वाले फ़ारूक़ सरल, अली हसन मकरैण्डिया, छुट्टन खां साहिल, दीन मोहम्मद दीन, अब्दुल गफ़्फ़ार, मुस्तफ़ा माहिर और शराफ़त समीर जैसे न जाने कितने काव्यनिष्ठ नामों के प्रति मेरी प्रणत प्रशंसक हूं। न जाने कितने निदर्शन ऐसे हैं जो मैं व्यक्तिगत तौर पर सुनाता-बताता जाऊं तो एक ऐसी जोरदार और अद्भुत श्रृङ्खला बन जायेगी, जिसकी हर दूसरी कडी हिन्दू-मुस्लिम की होगी। मैं खानक़ाह जाता हूं या महामानवों की मजारों पर सर झुकाता हूं,चादर चढाता हूं तो इसका अर्थ यह हुआ कि मैं हिन्दू नहीं रहा। नहीं साहब! मजहब अपनी जगह है और अक़ीदत अपनी जगह। मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना। लेकिन हमारी सियासत को ऐसा मञ्जूर नहीं लगता। मञ्जूर भी कैसे हो : मुट्ठी भर नासमझों को बरगला कर अपना उल्लू भी तो सीधा करना है। सब सीधे-सादे हों तो पुलिस भूखों मर जाये। पद पर बन आयेगी : यही होगा कि खत्म करो यह महकमा। क्या जरूरत है इनकी। सियासत की भी यही स्थिति है। सब समझदार हो गये तो हर तरह लहर-लहर लहराती-लफाती सुखी सियासत सूख जायेगी। भाषा, वर्ग, जाति, सम्प्रदाय, मजहब, क्षेत्रवादी राजनीति वोटों की फसल काटने को खाद की मानिन्द नारकीय नेताओ के लिये जरूरी है। लेकिन ध्यान रखा जाये कि जैसे एक ही तुक्का हर बार तीर का काम नहीं करता, जैसे एक ही दवाई हर रोग पर हर समय कारगर नहीं हो पाती, जैसे एक ही तरह का भोजन हर कोई हर जगह पसन्द नहीं करता, जैसे एक ही तरह की नीतियां हमेशा सफल नहीं होतीं; वैसे ही सियासत के स्तर पर वोटों की भूखी टुच्ची राजनीति के घृणित हथकण्डे हर स्थान पर हर बार, बार-बार काम नहीं आने। दुष्ट नेताओ की नालायकी जनता समझ चुकी है, बदलाव की बयार चल पडी है लेकिन मैं अब तक यह पूरी तरह समझ नहीं पाया हूं कि शहरी विकास के नाम पर रामपुर नगर के महत्वपूर्ण पहचानप्रतीकों को ध्वस्त करा डालने के आरोपी माननीय मोहम्मद आजम खां का हिन्दुस्तानी सैनिकों की शहादत से सम्बन्धित विवादास्पद बयान महज एक चुनावी हथकण्डा था, वोटों के ध्रुवीकरण की साजिश थी, किसी आला आदमी का अहम इशारा था, हमारी फ़ौज को आत्मिक-नैतिक रूप से कमजोर करने का पूर्वनियोजित प्लान था, कोई तवारीखी बदला था, किसी प्रतिस्पर्धी देश से मिले किसी गुपचुप नजराने का नतीजा था, जाफ़र-जयचन्द जैसी गद्दारी की नयी कडी थी, तुलसी-कबीर और खुसरो-दाराशिकोह के अदब का गला दबाने की चेष्टा थी, बिस्मिल-अश्फ़ाक़ की हमीदाना-शहीदाना रवायत को इतिहास के पन्नों पर झुठलाने का षडयन्त्र था, हिन्दू-मुसलमान को भडकाकर किसी और मुजफ़्फ़रनगर-अलीगढ दङ्गों का नक़्शा तैयार करने की भूमिका थी, किसी वर्गविशेष के दिलों में सदियों से पल रही पारम्परिक दुर्भावनाओ की सम्भावनाओ का सहज-सूक्ष्म प्रक्षेपण था या आने वाली नयी नस्लों के लिये कई-कई पाकिस्तानों के लिये हमारे प्यारे वतन हिन्दुस्तान के उन्नीस सौ सैंतालीसी तक़सीमी सोच का साम्प्रतिक ब्लूप्रिण्ट। आखिर क्या, क्या-क्या? कहीं यह एक और क़ायदे-आजम की तैयारी तो नही!
Saturday, 31 May 2014
एक और क़ायदे-आजम
मेरे कई मुस्लिम मित्र हैं : सहपाठी भी, परिचित भी। हम बहुत बार साथ होते हैं : तब, जब हमारी मजहबी मान्यताएं सर्वशक्तिमान सत्ता के प्रति प्रत्यक्षतः प्रणताकार हो रही होती हैं, किन्तु ऐसी स्थितियां कभी भी हमारे बीच परिवाद, परिहास और परस्पर उपेक्षा का कारण नहीं बन सकीं। मैं मुशायरों-कविसम्मेलनों में निजामत-सञ्चालन के दौरान सबसे पहले प्रायः नात-ए-पाक़ पढाता रहा हूं और कोशिश करता रहा हूं कि सर नङ्गा न रहे; लेकिन इससे मेरी सनातनी आस्था आज तक न खण्डित हुई, न बाधित। शारद-वन्दन के दौरान मेरे शायर मित्र हमेशा सहयोग करने का प्रयत्न करते हैं, लेकिन वे आज भी मुसलमान ही हैं। बहुत बार मैं किसी इस्लामपन्थी रचनाकार से सरस्वतीवन्दनानिवेदन करा लेता हूं और हिन्दूधर्मानुयायी से हम्द-ओ-नात-शरीफ़ पढवा लेता हूं परन्तु किसी ने न कभी विरोध किया और न कोई क़ाफ़िर या विधर्मी बना। आयोजनों या यात्राओ में प्रयास करता हूं कि नमाज पढने के क्रम में उनका निश्शब्द सहयोग हो सके। मेरा कोई मुस्लिम मित्र मेरे पूजा-पाठ के अनन्तर आ जाता है तो वह इतना शान्त सहयोग करता है कि लगता है, यही पक्की प्रत्यक्ष पूजा कर रहा है। किसी की इबादत में कैसा भी खलल न डालना इबादत का उत्कृष्टतम रूप है। मैं विशुद्ध शाकाहारी हूं : लहसुन-प्याज तक से परहेज करने वाले परिवार से। खानपान के प्रति बेहद चूजी; किन्तु जब तबर्रुक़ तक़सीम होता है तो मैं खजूर जरूर लेता हूं और जब मैं पूजा के उपरान्त प्रसाद वितरित करता हूं तो मेरे मुस्लिम मित्र मांग-मांग के ग्रहण करते हैं। एक-दो बार जब भी अपने ऐसे परिचितों-दोस्तों से एहतियातन पूछने की हिम्मत की है कि क्या प्रसाद ले सकते हैं, तो हमेशा उनके द्वारा तीखी भर्त्सना का शिकार हुआ हूं, हडका लिया गया हूं और इस तञ्जिया सवाल का शिकार हुआ हूं कि क्यों नहीं लेंगे। देना न चाहोगे तो भी ले लेंगे : लूटकर भी। मैं ऐसे अवसरों पर हमेशा अंसुआ आया हूं; ठीक वैसे ही, जैसे सत्यनारायण की कथा, हवन और पूजा-पाठ के कई अवसरों पर पापा रफ़ीक़ ताऊजी, नसरुद्दी दउवा, झन्नन अङ्कल और मुन्ना चाचा की ऐसी डांट-डपट और झिडकियों से भर आया करते थे। रफ़ीक़ ताऊ पञ्चामृत के प्रेमी थे। उनके न रहने की खबर पर हमारे घर में भी गमी का कैसा माहौल हो आया था, वह बचपन की याद अभी तक धुंधलाई नहीं है। झन्नन अङ्कल रामेश्वरम से प्रसाद में ताऊजी के लिये उनका नाम लिखा शङ्ख और तुलसीमाल लाये थे और ताईजी के लिये सिन्दूर। उनका दिया हुआ एक गमछा भी अभी तक हमारे घर में तबर्रुक़ के तौर पर सुरक्षित है। इसका अर्थ ये तो नहीं कि वे मुस्लिम नहीं रहे थे और हम हिन्दू। नसरुद्दी दउवा हमारे गांव में इस्लामपन्थी अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जो आज भी हम हिन्दुओ के बीच आराम से रह रहे हैं। पिछली ईसवी सदी के अन्तिम दशक में सारे के सारे मुसलमान परिवार एक आदमी के बरगलाने पर नाहक ही गांव छोड कर चले गये। नसरुद्दी दउवा को भी ले जाने की पुरजोर कोशिश की और न जाने क्या-क्या कहा किन्तु उन्होंने जाने से मना कर दिया और कहा कि यहीं पैदा हुआ, यहीं मरूंगा। अब जाऊंगा कहीं नहीं। समय काटने को अपना पुराना शौक़ आजमाते हैं : बकरी चराते हैं। थोडा-बहुत अपने खेतों में हिन्दू बटाईदारों की देख-रेख में जाते हैं और दोनों वक़्त का खाना हिन्दू भाइयों-भतीजों, नाती-पोतों के घर हिन्दू बहुओ-बेटियों का बना खाते हैं। मौक़ा पाते हैं तो थपडिया भी देते हैं शैतानी करते बालकों को; लेकिन क्या मजाल कि कोई उन्हें चूं कर जाये। मुन्ना चाचा की त्यॊहारी बिना हमारी होली-दिवाली अधूरी है, उनकी मिठाई-भुरकी और खील-खिलौनों के बिना पूरे गांव की भैयादूज असम्भव है। हमारा हर मङ्गल-कारज उनकी बाट जोहता है। हक़ीम-दस्तूर वाले हैदर ताऊ भी नहीं रहे, जो तहेरे भाई और मेरे यज्ञोपवीत में सबसे पहले ही निमन्त्रणपत्र के अधिकारी थे। मैं मूलतः अवधक्षेत्रवासी हूं। मेरा उर्दू-उच्चारण कमजोर रहा। मेरे मित्र डा० हुमायूं मुश्ताक़ से जबान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला के लफ़्जों के तलफ़्फ़ुज को उम्दा बनाने में यक़ीनी तौर पर मदद मिली। वे मुझसे कभी-कभार हिन्दीशब्दावली और उसकी रेञ्ज पर विमर्श कर लिया करते थे। मैं जहां बरेली कालेज के बोर्ड आफ़ कण्ट्रोल के वरिष्ठतम सदस्य जनाब जे.एन.सक्सेना की नफ़ीस उर्दूबयानी का मैं दीवाना हूं, वहीं अपने कई मुस्लिम मित्रों के शुद्ध हिन्दीज्ञान का भक्त। अपने दोस्त मुजक़्क़िर अली जैदी गुलशन से इस्लाम पन्थ की ऐतिहासिक जानकारी और उसकी बारीक़ियों से बाबस्ता होने की कोशिश करता हूं तो वहीं कई शायर साथियों से अदब में फ़न-ए-अरूज और कहन-तगज्जुल पर भी तज्क़िरा और मश्विरा कर लेता हूं। मुल्ला दाउद और मलिक मोहम्मद जायसी, क़ुतुबन-मञ्झन, उस्मान-रहीम-रसखान की रवायत वाले फ़ारूक़ सरल, अली हसन मकरैण्डिया, छुट्टन खां साहिल, दीन मोहम्मद दीन, अब्दुल गफ़्फ़ार, मुस्तफ़ा माहिर और शराफ़त समीर जैसे न जाने कितने काव्यनिष्ठ नामों के प्रति मेरी प्रणत प्रशंसक हूं। न जाने कितने निदर्शन ऐसे हैं जो मैं व्यक्तिगत तौर पर सुनाता-बताता जाऊं तो एक ऐसी जोरदार और अद्भुत श्रृङ्खला बन जायेगी, जिसकी हर दूसरी कडी हिन्दू-मुस्लिम की होगी। मैं खानक़ाह जाता हूं या महामानवों की मजारों पर सर झुकाता हूं,चादर चढाता हूं तो इसका अर्थ यह हुआ कि मैं हिन्दू नहीं रहा। नहीं साहब! मजहब अपनी जगह है और अक़ीदत अपनी जगह। मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना। लेकिन हमारी सियासत को ऐसा मञ्जूर नहीं लगता। मञ्जूर भी कैसे हो : मुट्ठी भर नासमझों को बरगला कर अपना उल्लू भी तो सीधा करना है। सब सीधे-सादे हों तो पुलिस भूखों मर जाये। पद पर बन आयेगी : यही होगा कि खत्म करो यह महकमा। क्या जरूरत है इनकी। सियासत की भी यही स्थिति है। सब समझदार हो गये तो हर तरह लहर-लहर लहराती-लफाती सुखी सियासत सूख जायेगी। भाषा, वर्ग, जाति, सम्प्रदाय, मजहब, क्षेत्रवादी राजनीति वोटों की फसल काटने को खाद की मानिन्द नारकीय नेताओ के लिये जरूरी है। लेकिन ध्यान रखा जाये कि जैसे एक ही तुक्का हर बार तीर का काम नहीं करता, जैसे एक ही दवाई हर रोग पर हर समय कारगर नहीं हो पाती, जैसे एक ही तरह का भोजन हर कोई हर जगह पसन्द नहीं करता, जैसे एक ही तरह की नीतियां हमेशा सफल नहीं होतीं; वैसे ही सियासत के स्तर पर वोटों की भूखी टुच्ची राजनीति के घृणित हथकण्डे हर स्थान पर हर बार, बार-बार काम नहीं आने। दुष्ट नेताओ की नालायकी जनता समझ चुकी है, बदलाव की बयार चल पडी है लेकिन मैं अब तक यह पूरी तरह समझ नहीं पाया हूं कि शहरी विकास के नाम पर रामपुर नगर के महत्वपूर्ण पहचानप्रतीकों को ध्वस्त करा डालने के आरोपी माननीय मोहम्मद आजम खां का हिन्दुस्तानी सैनिकों की शहादत से सम्बन्धित विवादास्पद बयान महज एक चुनावी हथकण्डा था, वोटों के ध्रुवीकरण की साजिश थी, किसी आला आदमी का अहम इशारा था, हमारी फ़ौज को आत्मिक-नैतिक रूप से कमजोर करने का पूर्वनियोजित प्लान था, कोई तवारीखी बदला था, किसी प्रतिस्पर्धी देश से मिले किसी गुपचुप नजराने का नतीजा था, जाफ़र-जयचन्द जैसी गद्दारी की नयी कडी थी, तुलसी-कबीर और खुसरो-दाराशिकोह के अदब का गला दबाने की चेष्टा थी, बिस्मिल-अश्फ़ाक़ की हमीदाना-शहीदाना रवायत को इतिहास के पन्नों पर झुठलाने का षडयन्त्र था, हिन्दू-मुसलमान को भडकाकर किसी और मुजफ़्फ़रनगर-अलीगढ दङ्गों का नक़्शा तैयार करने की भूमिका थी, किसी वर्गविशेष के दिलों में सदियों से पल रही पारम्परिक दुर्भावनाओ की सम्भावनाओ का सहज-सूक्ष्म प्रक्षेपण था या आने वाली नयी नस्लों के लिये कई-कई पाकिस्तानों के लिये हमारे प्यारे वतन हिन्दुस्तान के उन्नीस सौ सैंतालीसी तक़सीमी सोच का साम्प्रतिक ब्लूप्रिण्ट। आखिर क्या, क्या-क्या? कहीं यह एक और क़ायदे-आजम की तैयारी तो नही!
एक और क़ायदे-आजम
मेरे कई मुस्लिम मित्र हैं : सहपाठी भी, परिचित भी। हम बहुत बार साथ होते हैं : तब, जब हमारी मजहबी मान्यताएं सर्वशक्तिमान सत्ता के प्रति प्रत्यक्षतः प्रणताकार हो रही होती हैं, किन्तु ऐसी स्थितियां कभी भी हमारे बीच परिवाद, परिहास और परस्पर उपेक्षा का कारण नहीं बन सकीं। मैं मुशायरों-कविसम्मेलनों में निजामत-सञ्चालन के दौरान सबसे पहले प्रायः नात-ए-पाक़ पढाता रहा हूं और कोशिश करता रहा हूं कि सर नङ्गा न रहे; लेकिन इससे मेरी सनातनी आस्था आज तक न खण्डित हुई, न बाधित। शारद-वन्दन के दौरान मेरे शायर मित्र हमेशा सहयोग करने का प्रयत्न करते हैं, लेकिन वे आज भी मुसलमान ही हैं। बहुत बार मैं किसी इस्लामपन्थी रचनाकार से सरस्वतीवन्दनानिवेदन करा लेता हूं और हिन्दूधर्मानुयायी से हम्द-ओ-नात-शरीफ़ पढवा लेता हूं परन्तु किसी ने न कभी विरोध किया और न कोई क़ाफ़िर या विधर्मी बना। आयोजनों या यात्राओ में प्रयास करता हूं कि नमाज पढने के क्रम में उनका निश्शब्द सहयोग हो सके। मेरा कोई मुस्लिम मित्र मेरे पूजा-पाठ के अनन्तर आ जाता है तो वह इतना शान्त सहयोग करता है कि लगता है, यही प्रत्यक्ष पूजा कर रहा है। किसी की इबादत में कैसा भी खलल न डालना इबादत का उत्कृष्टतम रूप है। तबर्रुक़ तक़सीम होता है तो मैं खजूर जरूर लेता हूं और जब मैं पूजा के उपरान्त प्रसाद वितरित करता हूं तो मेरे मुस्लिम मित्र मांग-मांग के ग्रहण करते हैं। एक-दो बार अपने ऐसे परिचितों-दोस्तों से एहतियातन पूछने की हिम्मत की कि क्या प्रसाद ले सकते हैं, तो हमेशा भर्त्सना का शिकार हुआ हूं, हडका लिया गया हूं कि क्यों नहीं लेंगे। देना न चाहोगे तो भी ले लेंगे : लूटकर भी। ऐसे अवसरों पर हमेशा अंसुआ आया हूं; ठीक वैसे ही, जैसे सत्यनारायण की कथा, हवन और पूजा-पाठ के कई अवसरों पर पापा रफ़ीक़ ताऊजी, नसरुद्दी दउवा, झन्नन अङ्कल और मुन्ना चाचा की ऐसी डांट-डपट और झिडकियों से भर आया करते थे। रफ़ीक़ ताऊ पञ्चामृत के प्रेमी थे। उनके न रहने की खबर पर हमारे घर में भी गमी का कैसा माहौल हो आया था, वह बचपन की याद अभी तक धुंधलाई नहीं है। झन्नन अङ्कल रामेश्वरम से प्रसाद में ताऊजी के लिये उनका नाम लिखा शङ्ख और तुलसीमाल लाये थे और ताईजी के लिये सिन्दूर। उनका दिया हुआ एक गमछा भी अभी तक हमारे घर में तबर्रुक़ के तौर पर सुरक्षित है। इसका अर्थ ये तो नहीं कि वे मुस्लिम नहीं रहे थे। नसरुद्दी दउवा इस्लामपन्थी अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जो आज भी हम हिन्दुओ के बीच गांव में आराम से रह रहे हैं। पिछली ईसवी सदी के अन्तिम दशक में सारे के सारे मुसलमान परिवार एक आदमी के बरगलाने पर नाहक ही गांव छोड कर चले गये। नसरुद्दी दउवा को भी ले जाने की पुरजोर कोशिश की और न जाने क्या-क्या कहा किन्तु उन्होंने जाने से मना कर दिया और कहा कि यहीं पैदा हुआ, यहीं मरूंगा। अब जाऊंगा कहीं नहीं। समय काटने को अपना पुराना शौक़ आजमाते हैं : बकरी चराते हैं। थोडा बहुत अपने खेतों में हिन्दू बटाईदारों की देख-रेख में जाते हैं और दोनों वक़्त का खाना हिन्दू भाइयों-भतीजों, नाती-पोतों के घर हिन्दू बहुओ-बेटियों का बना खाते हैं। मौक़ा पाते हैं तो थपडिया भी देते हैं शैतानी करते बालकों को; लेकिन क्या मजाल कि कोई उन्हें चूं कर जाये। मुन्ना चाचा की त्यॊहारी बिना हमारी होली-दिवाली अधूरी है, उनकी मिठाई-भुरकी और खील-खिलौनों के बिना पूरे गांव की भैयादूज असम्भव है। हमारा हर मङ्गल-कारज उनकी बाट जोहता है। हक़ीम-दस्तूर वाले हैदर ताऊ भी नहीं रहे, जो तहेरे भाई और मेरे यज्ञोपवीत में सबसे पहले ही निमन्त्रणपत्र के अधिकारी थे। न जाने कितने निदर्शन ऐसे हैं जो मैं व्यक्तिगत तौर पर सुनाता-बताता जाऊं तो एक ऐसी जोरदार और अद्भुत श्रृङ्खला बन जायेगी, जिसकी हर दूसरी कडी हिन्दू-मुस्लिम की होगी। मैं खानक़ाह जाता हूं या महामानवों की मजारों पर सर झुकाता हूं,चादर चढाता हूं तो इसका अर्थ यह हुआ कि मैं हिन्दू नहीं रहा। नहीं साहब! मजहब अपनी जगह है और अक़ीदत अपनी जगह। मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना। लेकिन हमारी सियासत को ऐसा मञ्जूर नहीं लगता। मञ्जूर भी कैसे हो : मुट्ठी भर नासमझों को बरगला कर अपना उल्लू भी तो सीधा करना है। सब सीधे-सादे हों तो पुलिस भूखों मर जाये। पद पर बन आयेगी : यही होगा कि खत्म करो यह महकमा। क्या जरूरत है इनकी। सियासत की भी यही स्थिति है। सब समझदार हो गये तो हर तरह लहर-लहर लहराती-लफाती सुखी सियासत सूख जायेगी। भाषा, वर्ग, जाति, सम्प्रदाय, मजहब, क्षेत्रवादी राजनीति वोटों की फसल काटने को खाद की मानिन्द नारकीय नेताओ के लिये जरूरी है। लेकिन ध्यान रखा जाये कि जैसे एक ही तुक्का हर बार तीर का काम नहीं करता, जैसे एक ही दवाई हर रोग पर हर समय काम नहीं आती, जैसे एक ही तरह का भोजन हर कोई हर जगह पसन्द नहीं करता, जैसे एक ही तरह की नीतियां हमेशा सफल नहीं होतीं; वैसे ही सियासत के स्तर पर वोटों की भूखी टुच्ची राजनीति के घृणित हथकण्डे हर स्थान पर हर बार, बार-बार काम नहीं आने। नेताओ की नालयकी जनता समझ चुकी है, बदलाव की बयार चल पडी है लेकिन मैं अब तक यह पूरी तरह समझ नहीं पाया हूं कि शहरी विकास के नाम पर रामपुर नगर के महत्वपूर्ण पहचानप्रतीकों को ध्वस्त करा डालने के आरोपी माननीय मोहम्मद आजम खां का हिन्दुस्तानी सैनिकों की शहादत से सम्बन्धित विवादास्पद बयान महज एक चुनावी हथकण्डा था, वोटों के ध्रुवीकरण की साजिश थी, हमारी फ़ौज को आत्मिक-नैतिक रूप से कमजोर करने का पूर्वनियोजित प्लान था, कोई तवारीखी बदला था, किसी प्रतिस्पर्धी देश से मिले किसी गुपचुप नजराने का नतीजा था, जाफ़र-जयचन्द जैसी गद्दारी की नयी कडी थी, तुलसी-रसखान के अदब का गला दबाने की चेष्टा थी, बिस्मिल-अश्फ़ाक़ की शहीदाना रवायत को इतिहास के पन्नों पर झुठलाने का षडयन्त्र था, हिन्दू-मुसलमान को भडकाकर किसी और मुजफ़्फ़रनगर-अलीगढ दङ्गों की भूमिका थी या किसी वर्गविशेष के दिलों में सदियों से पल रही पारम्परिक दुर्भावनाओ की सम्भावनाओ का सहज-सूक्ष्म प्रक्षेपण था या आने वाली नयी नस्लों के लिये कई-कई पाकिस्तानों के लिये हमारे प्यारे वतन हिन्दुस्तान के उन्नीस सौ सैंतालीसी तक़सीमी सोच का साम्प्रतिक ब्लूप्रिण्ट। आखिर क्या, क्या-क्या? कहीं यह एक और क़ायदे-आजम की तैयारी तो नही!
जाति पूछिए त्रसित की
जाति पूछिए त्रसित की : तभी सोचिए न्याय
जो मन में हो, वो कर लो बान की मून! चाहे जो कह ले महिला आयोग! लेकिन होगा वही, जो सूबेदार चाहेंगे। सूबे में त्राहि-त्राहि है। बिजली के तारों पर कपडे सूख रहे हैं, पानी की टंकियां प्यासी हैं, टोंटिया गुर्रा रही हैं, हलाली फ़र्श पर है, दलाली अर्श पर। ईमानदारी और मेहनत-मजदूरी का फल मटियामेट हुआ जा रहा है लेकिन चोरी, सीनाजोरी और हरामखोरी चरम पर। पुलिस पहले पूछती है कि कौन जात हो वादीजी! और फिर वैसा न्याय। किसान की राह आसान नहीं। अन्नदाता निरन्न मर रहा है। भर्ती-दर-भर्ती न जाने किस आस और अवसर के लिये रद। शिक्षा के क्षेत्र में नक़ल-माफ़ियाओ के क्या कहने। कितने नम्बर चाहिए, बस बोलो। सत्तापक्ष का स्टूडेण्ट गुण्डा जिस समय आये, परीक्षा दे जाये, चाकू-कट्टा लहराये, कैम्पस में मोटरसाइकिल लहरा-लहरा के चलाये, पेपरों में हूटर बजाये, क़िताब आंखों के सामने तक न लाये लेकिन जब रिजल्ट आये तो विश्वविद्यालय में कार्यरत प्रभावी प्रभारीजी के बाबूजी का ही नाम टाप आफ़ द टाप में आये। अपराधियों की पौ बारह है, खादी, खाक़ी और काले कोट तो सत्ता के दबङ्गों की खिचमिचदारी में हैं ही, सफ़ेद कोट वाले भी कौन दूध के धुले बचे हैं! मरों मरीजों! मैंने कहा था कि बीमार पडो। जिस वर्ग विशेष की सरकार आ जाये, नियुक्तियों में उसी नामरूप के लोग जलवाअफ़रोज होते मिलने लगते हैं। नियुक्तियां भी आमतौर पर उन्हीं की, जिनकी कहीं भी, कैसे भी, कोई भी और कभी भी नहीं होनी चाहिए थीं। उच्च शिक्षा इतनी निम्न हो चली है कि अकादमिक उन्नति और शोध का अल्लाह मालिक है। किसी को हर अर्हता-योग्यता के बाद नियुक्ति नहीं और किसी सत्ताधारी के सजातीय कृपापात्र की कन्या को बिना किसी अर्हता-शर्त-नियुक्ति : और नियुक्ति भी ऐसी नहीं, नियुक्ति ऐसी कि रातोंरात खुद जिलाधीशजी आकर एक विभाग की पोस्ट मिटा-हटा कर दूसरे विभाग में एडजस्ट-क्रिएट कर ज्वाइन भी करा जायें। लेकिन सुश्री की ऐसी क़ाबिलियत की क़द्र यहीं तक नहीं, मैडमजी महीने-महीने बाद साइनार्थ दर्शन देने की कृपा करने आ जायें, बस। मुझे तो हरिशङ्कर परसाई के व्यङ्ग्यसङ्ग्रह 'कागभगोडा' का इण्टरव्यू पर एक व्यङ्ग्यलेख याद आता है। हर इण्टरव्यूआर्थी के पढने-योग्य। नयी नियुक्तियों में धांधली रेकार्ड क़ायम कर रही है। किसी का बगैर चढावा चढाये हो जाये काम, ऐसा अब सम्भव नहीं लगता। मान लो हो भी जाये तो कोई मानने को तैयार नहीं होगा : उसे घपलेबाजी और सन्देह की नजर से ही देखा जाना चाहिए क्योंकि परम्पराविच्छिन्न चीज आम तौर पर तआज्जुबतलब ही होती है। लैबें खाली पडी हैं, उनमें काक्रोच और चूहे प्रयोगरत हैं। आरडीसी बैठकें बन्द हैं। जेआरफ़िए फ़ुक्के कर दिये गये हैं। पुराने प्रोफ़ेसर सेवानिवृत्ति के बाद संविदा पर लगाये-लाये जा रहे हैं। नयी लगन, नये विजन, नये सृजन के लिये सारे दरवाजे बन्द करना प्राथमिकता में है। हां, नयी पीढी को नाकारा करने की पूरी तैयारी है। किसी सरकार को सबसे ज्यादा खतरा नौजवान चेतना से ही होता है, न जाने कब क्या कर बैठे : तो बजट रोजगार देने के नाम पर नहीं, बेरोजगारी भत्ता देने के नाम पर ठिकाने लगाओ, नयी पीढी अपने आप ठिकाने लग जायेगी। आरामतलबी की अफ़ीम आदमी को बरबाद कर देती है। पडे-पडे मौज मारने के आदी किसी लायक नहीं बचते। अब बताओ कि कौन करेगा क्रान्ति सत्ता की मनमानियों के विरुद्ध! लैपटाप दे दो ऐसी-वैसी फ़िल्में देखने को। मन तो मन है : वो भी नौजवान का। जैसा देखेगा, वैसा सीखेगा, बाद में वैसा ही करेगा। फिर दोष किसी को क्या देना! क्या परिवार को, क्या समाज को, क्या स्कूल को, क्या क़ानून को।
क़ानूनव्यवस्था वैसे ही चौपट है, अस्मिता का सङ्कट तो कहो ही मत। स्त्री तो स्त्री, आबालवृद्ध कोई सुरक्षित नहीं। हो भी कैसे, नेताजी ने तो मानवमन की मजबूरी बता ही दी थी कि गलतियों का क्या, वो तो हो ही जाती हैं। यद्यपि गलतियों के नाम पर कुछ भी होता रहे, ये नेताजी के लिये कोई मार्के की बात नहीं तो भी बहू-बेटियों की चिन्ता करके ही बोलना चाहिए। ऐसे बयानों से हुडारते सांडों से बहू-बेटियों को खतरा ही खतरा है, खासकर उन्हें, जो बेटी-बहू सीधी सिम्पल हैं। नेताजी को ऐसी घटनाओ का कोई अफ़सोस नहीं होना तो भी यह अच्छा ही हुआ कि उस समय मोदी प्रधानमन्त्री नहीं बने थे, नहीं तो गलतियों का ठीकरा उनके खाते में डाला जा सकता था और कहा जाता कि मैनपुरी, आजमगढ, इटावा, फ़िरोजाबाद, बदायूं और कन्नौज में गलती नहीं होती और न होनी चाहिए, बाक़ी कहीं भी हो। गलती के लिये औरों को आरोपित करने में भी क्या जाता है, भले ही गलती को नेताजी अपराध, असामान्य और दण्डनीय नहीं मानते। बलात्कृत बहनों को आरोपितों द्वारा पेड पर जिन्दा लटका देने के लिये देश भर में चर्चाया कटरा-शहादतगञ्ज बदायूं जनपद में पडता है। नेताजी कल को कह सकते हैं कि देखो, जहां ऐसा हुआ है, वो बदायूं का हिस्सा हो कर भी हमारे भतीजे का संसदीय क्षेत्र नहीं; वहां से तो भाजपा निकली है न! राजनाथ सिंह जानें; ठीक वैसे ही, जैसा बताते हैं कि कहा गया है - बिजली अब अमित शाह देंगे गुजरात से। उनसे ही कहा जाये। पांच संसदीय सीटों के अलावा कहीं के मतदाता-नागरिक यूपी के मूलभूत संसाधनों के हक़दार नहीं। सुना है कि ऐसा यूपी के क़ायदे-आजम कह रहे हैं : ये वही हैं, जो वोटों के लिये शहादत के नाम पर हमारी क़ौमी यकजहती को बदनाम करने से भी बाज नहीं आये। सरकार के सपने क्या ऐसे ही सच होंगे साहब! लोहियाजी कहा करते थे कि हमारी पार्टी ही हमारा परिवार है। उनके विचारवर्द कहते दीखते हैं कि हमारा परिवार ही हमारी पार्टी है। जनता ने भी जैसे मान ही लिया ये। परिवारीजनों को छोडकर किसी कैण्डीडेट को नहीं छोडा। देखो, बैलेट बुलेट से कहीं-कहीं ज्यादा खातक, कई-कई गुना असरदार होता है। जैसे बीमाकर्मी, यमदूत, दुश्मन, सर्प, तोता और नेता अपना अवसर आने पर नहीं चूकते; वैसे ही जनता भी अपने ढङ्ग से सबसे निपट लेती है। जनता मतदान के वक़्त प्रायः किसी को नहीं बख्शती। वो भी पेड पर ही लटका के मारती है। लोकतान्त्रिक चुनावों का इतिहास तो यही कहता है। तो चेतो नेताजी!
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Tuesday, 27 May 2014
करनी भरनी तय करती है
नरेन्द्र दामोदरदास मोदी का प्रधानमन्त्री बनना उतना बडा शाहकार नहीं है जितना
आम चुनाव-२०१४ के परिणाम अपने आप में शाहकार हैं। खासकर तब, जब बहुमत उसे मिले, जिसका कि लगभग हर पार्टी
पुरजोर विरोध कर रही हो : और बहुमत भी ऐसा-वैसा नहीं, कि केवल सरकार निभाने भर के दांव-पेंच
लड पायें बल्कि बहुमत ऐसा कि विपक्षियों के गुमान झड जायें, विपक्षी पार्टी के कार्यालयों पर
ताले पड जायें, विजेता के कमाल के झण्डे गड जायें और संसद में विपक्ष के लिये लाले पड जायें। जो
सामने आया, उसी की जमानत जब्त। सारे के सारे विपक्षी चारों खाने चित्त। विश्वैतिहास में पहली
बार ऐसा है कि दुनिया के सबसे बडे लोकतन्त्र में विपक्ष के लिये समर्थन की दरकार है।
ऐसा इसलिये ही नहीं हुआ कि राजर्षि विदेह की तरह राजनीतिक जीवन जीते आ रहे नरेन्द्र
की चुनावी रणनीति ऐसी थी, बल्कि इसलिये भी ऐसा हुआ कि भास्वर भास्कर की प्रचण्ड ऊर्ध्वोपलब्धियों
पर कुटिलतापूर्ण निशाना लगाने वालों का यही हाल होता है। आसमान पर थूकने से थूक थूकने
वाले का ही मुंह गन्दा करता है। हां, इसमें दो राय नहीं कि नरेन्द्र भाई की प्रबन्धनदक्षता,
कर्मक्लिष्टता,
सजगसतर्कता,
व्यक्तित्व-सहजता और
दृष्टिप्रखरता ने भाजपा के उस असम्भव स्वप्न को भी साकार कर दिया जिसके लिये सपने में
भी सम्भावना नहीं निकल पा रही थी किन्तु मोदी के विजयाभियान को तीव्रतर करने में सबसे
अधिक निःशुल्क भूमिका उनके जाती दुश्मनों, जानी दुश्मनों और प्रतिस्पर्धियों-प्रतिद्वन्द्वियों
ने ही निर्वाही है। अच्छे दिन आने वाले हैं की मुखालफ़त करने वालों के बारे में आमजन
तय करने लगा था कि किल्विष की भूमिका यही लोग निबाह रहे हैं। राजीव शुक्ला जैसे सियासी
खिलाडियों का स्वर तब हमें खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे वाली मसल याद दिला देता है,
जब वे खीझ भरा व्यङ्ग्यात्मक
बयान बकुरते हैं कि जनता को बधाई क्योंकि अब महंगाई कम हो जायेगी। ऐसे बयान यह बताने
के लिये पर्याप्त हैं कि काङ्ग्रेस का कीमा किसने कूटा है, राहुल भैया को गया-गुजरा कौन कर गुजरा
है, सोनिया
मैया की मिट्टी किसने पलीत की है, कङ्गाली में आटा गीला किसने किया है, प्रियङ्का का बैण्ड-बाजा किनने बजा
दिया है, कपिल
को पिलपिला किसने कर डाला है, दिग्गी की डिग्गी कौन डिगा गया है, किसने श्रीप्रकाश की जय पर सवालों
का कोयला पोत मारा है और किसने सैकडा का जादुई आंकडा दहाई तक समेट दिया है। इतिहास
गवाह है कि जनता को उपेक्षा के हाशिये पर ढकेलने वाले राष्ट्रीय इतिहास के सफ़्हों से
साफ़ हो जाते हैं। मुई खाल की सांस से सार भसम ह्वै जाइ। ध्यान रखना, वक़्त की चोट में आवाज नहीं
होती लेकिन लगती जोर की है। जहां छुओ, आह की आवाज ही आती है। मोदी के क़द और क़दम कम करने के
लिये जुटी और जुडी छितराई हुई क्षेत्रीय कुक्कुरमुत्ती पार्टियों के साथ-साथ कांग्रेस
को भी सबक मिल चुका है, ऐसा बुरी तरह मुंह की खाई इन पराजित पार्टियों के सङ्घटक सूत्र
भी स्वीकार रहे हैं। भूला न जाये, जनाकांक्षाओ की उपेक्षाओ की भित्ति पर चिने जाने वाले महत्वाकांक्षाओ
के महलों के कङ्गूरे बदलाव की बयार में ताश के पत्तों की मानिन्द भरभरा कर ढह जाते
हैं। रह जाता है अकेलेपन को अभिशप्त भयावह मञ्जर, जहां घुग्घुओ की घुघुआहटें,
चमगादडों की चिचियाहटें
और अकुलाती आत्माओ की आहटें आगत को आवाज लगाया करती हैं किन्तु मरने आना कोई नहीं चाहता।
जो शासक शासित शोषित का त्रासक हो जाता है : वह शासक ध्वंसों के अंधियारों में खो जाता
है। जो शासित के पोषण-रक्षण हित जीता-मरता है : काल उसी शासक का जय-जयकार किया करता
है।
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Monday, 26 May 2014
उजले दिन जरूर आयेंगे
आयेंगे...
उजले दिन जरूर आयेंगे…
सचमुच बडा आयोजन था : कवि, रचनाकार और साहित्यकार जैसे कई तबकों के लोग आये थे। जरूर आये होंगे क्योंकि अखबार वालों ने बार-बार लिखा कि अलाने कवि, फलाने रचनाकार, ढिकाने साहित्यकार। मान तो मैं भी लेता औरों की तरह, किन्तु खोपडी तो 'विज्ञान आओ करके सीखें' के शिकञ्जे से अभी तक मोक्ष ही नहीं पा सकी है न! शुरुआती कक्षाओ मे साइंस सीखने का साइड इफ़ेक्ट कम नहीं हुआ अभी। वो तो अच्छा हुआ कि इण्टर के वाइवा के बाद विज्ञान को बाय-बाय कह आये नहीं तो ओशो बाबा की अतर्क्य तर्कशीलता का दुर्धर्ष अध्ययन अभी भी ऐडा ही बनाये रहता लेकिन अब इन अखबारी ऐडों को कौन समझाये कि कवि भी एक रचनाकार है और अन्ततः वह भी साहित्यकार है। कमसे कम काव्यशास्त्र तो यही कहता है। मन तो कभी-कभी करता है कि कभी जाकर इन क़लमकारों से पूछा जाये कि क्या कवि साहित्यकार नहीं होता या ये दो अलग-अलग पद हैं। पद से मेरा मतलब पोस्ट, पैर या सूरदास आदि की किसी पद्यरचना विशेष से न लिया जाये। मुझे एक माक़ूल मसल याद आ गयी : बाप-पूत, साले-बहनोई / मामा-भाञ्जे और न कोई। बताओ कितने लोग? लेकिन कार्यक्रम सचमुच बहुत बडा था क्योंकि उसमें आने वाले लोग बहुत बडे थे और आने वाले लोग इतने बडे थे कि उनमें के एक सम्माननीय स्थानीय साहित्यकार के प्रिण्टेड जीवनवृत्त के साथ उसके घर-परिवार के साथ पत्रव्यवहार का पता भी एक अखबार ने मोटे अक्षरों में ससम्मान-साभार प्रकाशित किया। कार्यक्रम वास्तव में बडा था क्योंकि जहां मोदी माडल को गैलनों पानी पी-पी कर कोसा जाये और मोदी की साम्प्रदायिक करतूतों पर घडों आंसू बहाये जायें और वह क्रियाकर्म बडा न हो, ऐसा कैसे हो सकता है। खास कर तब तो यह और भी युगान्तरकारी महत्व का हो जाता है जब दलित -मुसलमानों के झांसे में आने से मोदी की शाहकारी जीत पर हा-हाकारी ढङ्ग से चिन्ता व्यक्त की जा रही हो कि हाय, अब अपनी दुनिया खत्म धरी समझो। इसलिये जनवादी कविताओ की जरूरत है और जनवादी कविताएं कौन ? जो हम लिखते हैं क्योंकि हम जन-आन्दोलनों के अगुआ हैं। बडा अच्छा है कि आप अगुआ-भगुआ-लगुआ जो भी हैं, लेकिन क्या आपकी आठ लाइनें भी किसी आम आदमी को याद हैं, मूल प्रश्न यह है। कौन सुनता है आपको! कितने जानते हैं आपको! वो तो, जिनको पद्य और गद्य - दोनों की सामान्यतः सामान्य समझ भी नहीं है, वे आपकी पृष्ठनाशी रचनाओ को पार लगा रहे हैं नहीं तो आपका मुख्यधारा के साहित्य का पुराना प्रचारमानक ठिकाने लगते देर नहीं लगनी। इस सन्दर्भ में मुझे नरेन्द्र कोहली बार-बार याद आते हैं हमारे पाठक लाखों हैं तो हम पर लोकप्रिय रचनाधर्मिता का दोषारोपण और आपके मुट्ठी भर भी नहीं तो आप मुख्यधारा के रचनाकार। वास्तव में बडे हैं आप और आपके आयोजन क्योंकि पाठ्यक्रमों में आप, प्रकाशन-श्रृङ्खलाओ मे आप, आयोजनों में आप, अखबारों में आप, यहां आप, वहां आप, पता नहीं कहां-कहां आप। आप जानते हैं कि गैरहाजिरी और बीमारी से भी बडा बना जा सकता है। आप जानते हैं कि कोई शहर बडा नहीं होता और न ही उसे कोई बडा बनाता है : उसे बडा बनाती है वीरेन की कविता। लेकिन मेरे साथी, शायद निराशवादी साथी! आप भले विरोध करो मोदी के सम्पुट का कि अच्छे दिन आने वाले हैं किन्तु मैं हमेशा स्वीकारता हूं अपने वीरेन दा की कविता को कि आयेंगे, उजले दिन जरूर आयेंगे…
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उजले दिन जरूर आयेंगे…
सचमुच बडा आयोजन था : कवि, रचनाकार और साहित्यकार जैसे कई तबकों के लोग आये थे। जरूर आये होंगे क्योंकि अखबार वालों ने बार-बार लिखा कि अलाने कवि, फलाने रचनाकार, ढिकाने साहित्यकार। मान तो मैं भी लेता औरों की तरह, किन्तु खोपडी तो 'विज्ञान आओ करके सीखें' के शिकञ्जे से अभी तक मोक्ष ही नहीं पा सकी है न! शुरुआती कक्षाओ मे साइंस सीखने का साइड इफ़ेक्ट कम नहीं हुआ अभी। वो तो अच्छा हुआ कि इण्टर के वाइवा के बाद विज्ञान को बाय-बाय कह आये नहीं तो ओशो बाबा की अतर्क्य तर्कशीलता का दुर्धर्ष अध्ययन अभी भी ऐडा ही बनाये रहता लेकिन अब इन अखबारी ऐडों को कौन समझाये कि कवि भी एक रचनाकार है और अन्ततः वह भी साहित्यकार है। कमसे कम काव्यशास्त्र तो यही कहता है। मन तो कभी-कभी करता है कि कभी जाकर इन क़लमकारों से पूछा जाये कि क्या कवि साहित्यकार नहीं होता या ये दो अलग-अलग पद हैं। पद से मेरा मतलब पोस्ट, पैर या सूरदास आदि की किसी पद्यरचना विशेष से न लिया जाये। मुझे एक माक़ूल मसल याद आ गयी : बाप-पूत, साले-बहनोई / मामा-भाञ्जे और न कोई। बताओ कितने लोग? लेकिन कार्यक्रम सचमुच बहुत बडा था क्योंकि उसमें आने वाले लोग बहुत बडे थे और आने वाले लोग इतने बडे थे कि उनमें के एक सम्माननीय स्थानीय साहित्यकार के प्रिण्टेड जीवनवृत्त के साथ उसके घर-परिवार के साथ पत्रव्यवहार का पता भी एक अखबार ने मोटे अक्षरों में ससम्मान-साभार प्रकाशित किया। कार्यक्रम वास्तव में बडा था क्योंकि जहां मोदी माडल को गैलनों पानी पी-पी कर कोसा जाये और मोदी की साम्प्रदायिक करतूतों पर घडों आंसू बहाये जायें और वह क्रियाकर्म बडा न हो, ऐसा कैसे हो सकता है। खास कर तब तो यह और भी युगान्तरकारी महत्व का हो जाता है जब दलित -मुसलमानों के झांसे में आने से मोदी की शाहकारी जीत पर हा-हाकारी ढङ्ग से चिन्ता व्यक्त की जा रही हो कि हाय, अब अपनी दुनिया खत्म धरी समझो। इसलिये जनवादी कविताओ की जरूरत है और जनवादी कविताएं कौन ? जो हम लिखते हैं क्योंकि हम जन-आन्दोलनों के अगुआ हैं। बडा अच्छा है कि आप अगुआ-भगुआ-लगुआ जो भी हैं, लेकिन क्या आपकी आठ लाइनें भी किसी आम आदमी को याद हैं, मूल प्रश्न यह है। कौन सुनता है आपको! कितने जानते हैं आपको! वो तो, जिनको पद्य और गद्य - दोनों की सामान्यतः सामान्य समझ भी नहीं है, वे आपकी पृष्ठनाशी रचनाओ को पार लगा रहे हैं नहीं तो आपका मुख्यधारा के साहित्य का पुराना प्रचारमानक ठिकाने लगते देर नहीं लगनी। इस सन्दर्भ में मुझे नरेन्द्र कोहली बार-बार याद आते हैं हमारे पाठक लाखों हैं तो हम पर लोकप्रिय रचनाधर्मिता का दोषारोपण और आपके मुट्ठी भर भी नहीं तो आप मुख्यधारा के रचनाकार। वास्तव में बडे हैं आप और आपके आयोजन क्योंकि पाठ्यक्रमों में आप, प्रकाशन-श्रृङ्खलाओ मे आप, आयोजनों में आप, अखबारों में आप, यहां आप, वहां आप, पता नहीं कहां-कहां आप। आप जानते हैं कि गैरहाजिरी और बीमारी से भी बडा बना जा सकता है। आप जानते हैं कि कोई शहर बडा नहीं होता और न ही उसे कोई बडा बनाता है : उसे बडा बनाती है वीरेन की कविता। लेकिन मेरे साथी, शायद निराशवादी साथी! आप भले विरोध करो मोदी के सम्पुट का कि अच्छे दिन आने वाले हैं किन्तु मैं हमेशा स्वीकारता हूं अपने वीरेन दा की कविता को कि आयेंगे, उजले दिन जरूर आयेंगे…
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Sunday, 25 May 2014
बनाये रहो बङ्गू
बताते हैं, बडा कार्यक्रम था। बहुत बडा कार्यक्रम था। बहुत भीड थी। बडी सङ्ख्या में लोग आये
थे। सत्तर-अस्सी लोग तो हाल से बाहर तक ही
थे। बडा आयोजन था। बहुत बडा आयोजन था। बडे-बडे हर्फ़ों में, बहुत बडे-बडे लफ़्जों में
अखबारों में आया है। आता भी क्यों नहीं, बडे-बडे लोग आये थे तो अखबार वालों ने भी बडा-बडा करके
छापा, बडे दिल
से छापा। बडे लोग हैं तो बडे आयोजन हैं। बडे आयोजन हैं तो बडी कवरेज है। बडी कवरेज
है क्योंकि बडे अखबार हैं, बडे-बडे अखबार हैं, बडे-बडे लोगों के अखबार हैं, बडे-बडे लोगों के लिये अखबार हैं।
बडे-बडे लोग हैं तो छोटे लोगों को चिन्ता करने की क्या पडी है! बडे लोग छोटे लोगों
को नहीं भूलते क्योंकि हमें चिन्ता नहीं उनकी, उन्हें चिन्ता हमारी है। बडे लोग
तो भगवान की तरह होते हैं और छोटे लोग इंसान की तरह। बताते हैं प्रगतिशील लोग कि पहले
इंसान ने ईश्वर का अस्तित्व बनाया, बाद में ईश्वर को अपना अस्तित्व बनाये रखने के इंसानों के आसरे
रहना पड रहा है। बडे-बडे लोग छोटे-छोटे लोगों के नाम पर ही अखबारों में छपते हैं और
बडे बनते हैं। वक़्त-जरूरत नामजाप ही काम आता है। छोटे लोगों के अखबार नहीं होते,
छोटे लोग अखबारों के
लिये नहीं होते। वे बडे लोगों के प्रकाशनार्थ अखबारों की सामग्री के लिये होते हैं।
अखबार वाले सत्ताप्रतिष्ठानों के लिये पण्डा-पुरोहित का काम करते हैं। सत्ता तक पहुंचने
का रास्ता जनता के दरवाजे से ही होकर जाता है इसीलिये जनवादी होना ही पडेगा। मरता क्या
न करता! निर्जनवादी को भी जनवादी होना पडेगा, अगर सत्ताप्रतिष्ठान तक जाना है,
सज्जनवादी बोल बोलने
होंगे अगर अखबार में आना है। बडे-बडे लोग बडे-बडे आयोजन निर्जन में नहीं कर सकते :
एसी वाले लोग अपनी ऐसी-तैसी कैसे करा लें। देह और मन की माया ही ऐसी है। एक कथाव्यास
को माया-मोह पर प्रवचन करते सुना था। दैहिक सुखों की भर्त्सना करते हुए उन्होंने एक
भृत्य को बुला के कहा था कि एसी आज कूलिङ्ग कम कैसे कर रहा है। जनता पर भाषण देने वाले
जनता का जीवन दो दिन नहीं जी सकते। लेकिन क्या करें! अपनी दाल तो गलानी ही है,
कविताओ में जनता की
छौंक तो लगानी ही है क्योंकि फोटो अखबार में छपानी है : वैसे तो कोई सुनता-गुनता नहीं
सा'ब! तो फिर
डटे रहो लाल लिक्खाडों। थाली में छेद करके बनाये रहो बङ्गू। बडों के इशारों पर तो बडे-बडे
नाचते हैं, हमारी बिसात ही क्या। हम छोटे लोग आखिर हैं ही किस खेत के बथुए...
Dr. Rahul Awasthi
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धन्य हो खबरवीरों
खबर होती नहीं, बनानी पडती है...
बाईचांस आज एक चायकालीन चर्चा सुनने का अलभ्य लाभ मिल गया। कल एक कार्यक्रम था,
जिसकी पूर्वसूचना अखबार
वाले ऐसे छाप रहे थे कि अपने समय का शाहकार हो। आज इस कार्यक्रम को अखबारों ने इस ढङ्ग
से स्पेस दे के छापा है मानो कि मामला स्पांसरशिप का हो। खास कर तब, जब रविवार के नाम पर न जाने
कितनी खास खबरें स्पेस के रोने की भेंट चढा दी जाती हैं। लोगों को लग रहा था कि अमूमन
इतना स्पेस तो किसी बडी घटना के लिये भी नहीं निकलता। व्यावसायिक स्वार्थों के चलते
बहुत सी न्यूजें गायब तक हो जाती हैं। ध्यान तो मेरा भी गया इस बात पर, किन्तु चर्चा निकल आयी तो
बहुत सारे आयाम अपने आप अनावृत होते चले गये जैसे कि ज्यादातर अखबार एक विचारधारा विषेश
के हाथों बेमोल बिके-से रहते हैं। उनकी कोई भी खाडी युद्धीय खबर अमेरिका की तरह अपना
माहौल बनाना जानती है, इङ्गलैण्ड की तरह अपना औपनिवेशिक स्थान बना लेती है और चाइनीज
आइटम की तरह खप-छ्प जाती है। इसी तरह हर शहर में कुछ लोग भी ऐसे होते हैं जिनकी हर
वाह-आह-कराह के लिये समाचार-पत्रों के पन्ने बिछे-से रहते हैं। ऐसे लोगों की क़ब्ज की
समस्या ये अखबार राष्ट्रीय सङ्कट की तरह प्रकाशित करते हैं। इन लोगों के छींक आने का
मतलब है हिमालय की समाधि भङ्ग होने जितनी बडी खबर। ऐसे अखबार बडे परोपकारी हैं क्योंकि
इनके पब्लिशिङ्गवेण्टिलेटरों पर ही कई राष्ट्रीय धरोहर टाइप की शख्सियतों की सांसे
अटकी हैं। सचमुच, सात दिन तक इनकी कोई खबर कहीं न कहीं न छ्पे तो आठवें दिन बडे दुख के साथ इनकी
उठावनी की खबर छापनी पडेगी। हालात ये हैं कि न जाने कितनी न्यूजें निराधार छप रही हैं
और जिन्हें छ्पना चाहिए, वे कूडेदान की शोभा बढाने को बलि दी जा रही हैं। पिछ्ले कुछ
वर्षों से एक और ट्रेण्ड निकला है : किसी भी मुद्दे पर अखबार के आफ़िस या और कहीं इकट्ठा
हो कर डिस्कशन का। पता नहीं इससे क्या उखडा अब तक किन्तु हर बार कुछ कामन चेहरों को
अपने कई-कई जोडी कपडों का सदुपयोग कर अपने पडोसियो पर अपनी बुद्धिजीविता का रौब गालिब
करने का अवसर अवश्य मिल गया। नौसिखुए संवाददाता की मनगढन्त स्टोरी के साथ छपे चिकने
चेहरों की कार्नरीय एलीट बहसों और पाश कालोनियल सोशलाइट महिला ब्रिगेड के पाउडर पोते
प्रीप्लाण्ड पिक्चर आप आराम से किसी भी अखबार में ऊपर ही ऊपर पा सकते हैं लेकिन कोई
शोधोपलब्धि या अकादमिक महत्व का समाचार आपको ऐसी जगह मिलेगा, जहां उसका होना भी बेमानी
हो जायेगा। कक्षाओ में कुक्कुर की कहानी क़ातिलाना तौर पर प्रकाशित होगी किन्तु तङ्ग
और गन्दी गलियों से उभर रहे गुदडी के लाल के सङ्घर्ष की गौरवगाथा इनके लिये कोई महत्व
नहीं रखती। छपे हुए ये अक्षम्य और अछिप अखबारी कारनामे अब इतने वाहियात और विद्रूप्त
लगने लगे हैं कि चिढ-सी होने लगी है। कहां तक बर्दाश्त करेगा कोई, आखिर एक हद तो होती ही है
: विषेशकर तब, जब कहा जाता हो कि अखबार नागरिकचेतना का शिक्षक भी है, समाज का दर्पण भी है और लोकतन्त्र
का चौथा स्तम्भ भी है। अस्तु, सब सुनता रहा मैं। सामान्य तौर पर एक भी तर्क मेरे पास इस बहस
के विरोध में नहीं है। ये अखबार वाले वही तो हैं, जिन्होंने न जाने क्या का क्या करके
रख दिया है! एक गरिमामय परम्परा रही है हमारी पत्रकारिता की; किन्तु मिशनोन्मत्त से व्यसनोन्मुख
साम्प्रतिक पत्रकारिता अब फोटोजेनिक फ़ेस की आवश्यकता के सहारे है। समकालीन पत्रकारिता
का पहला प्रशिक्षणसूत्र अब तो मुझ-जैसे मतिमन्द की खोपडी में भी पैवस्त होने लगा है
कि दुनिया में कहीं कोई खबर होती नहीं, बनानी पडती है : तो फिर बनाये रहो खबरवीरों...
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Saturday, 10 May 2014
जम्हूरियत-ए -हिन्दोस्तान
बनारस की सुबह भी है, अवध की शाम भी है ये
ये गङ्गा का प्रवाहण है तो चारों धाम भी है ये
हमारे देश की जम्हूरियत यूँ तो तपोमय है
मगर जब वक़्त पड़ता है तो इक सङ्ग्राम भी है ये
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ये गङ्गा का प्रवाहण है तो चारों धाम भी है ये
हमारे देश की जम्हूरियत यूँ तो तपोमय है
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Thursday, 8 May 2014
एक ऋचा रचती रही
एक हथेली पर ऋचा रचती रही निनाद
मौन भाव से हो गया जीवन का संवाद
रेखाओं ने कर दिया शुभ सपना साकार
संस्कृति के अभिषेक से शुचिता का श्रृंगार
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रेखाओं ने कर दिया शुभ सपना साकार
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अकादमिक आनन्द
आईसीएसएसआर के तत्वावधान में
बरेली कॉलेज, बरेली में आयोजित
समाजविज्ञान में शोधप्रविधिपाठ्यक्रम
की दस दिवसीय कार्यशाला में
अकादमिक आनन्द की उपलब्धियात्रा में
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Wednesday, 7 May 2014
सीता सीता मात्र
छलना फिर-फिर भयभीता हो उठती है
साधक की सुधि सुपुनीता हो उठती है
जीवन जब रामायण होने लगता है
श्वासों की संगति सीता हो उठती है
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Tuesday, 6 May 2014
डायबिटीज़ चुनाव की
झमेला झेल चले
राजनीति के शर्बत में मिलता न स्वार्थ का शक्कर
बार - बार हम भी न भोगते तो चुनाव का चक्कर
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Sunday, 4 May 2014
और अब तुम भी…
और अब तुम भी नहीं रहे बीगल…
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Saturday, 3 May 2014
हाय हम वारे जावें
बदरंगियत गुलाल औ' अबीर हो गयी
किस-किस को कहें कैसी-कैसी पीर हो गयी
सड़सठ की उम्र पार करके प्यार करेंगे
दिग्गी की शादी यूथ को नज़ीर हो गयी
@ डॉ० राहुल अवस्थी
@ चुनावी चकल्लस : समाचार प्लस
@ चित्र सौजन्य : डॉ० मधु चतुर्वेदी
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