कवि सम्मेलन
Saturday, 27 October 2018
Sunday, 12 August 2018
Wednesday, 1 August 2018
गीत कौस्तुभ
प्राकृत कविताई का गीतमान
विधाता का वरदान है जीवन। जीवन एक कविता है और कविता की उत्तमोत्तम उपलब्धि है गीत। गीत गति का अनन्य साक्ष्य है। गति है तो गीत है। गति नहीं तो गीत नहीं। गीत बिना जीवन की गति भी नहीं। निर्धारित चरणों की नपी-तुली सुगठित गति हमारे जीवनसङ्गीत को उद्भासित करती है। ज़रा-सा भी भटके नहीं कि मामला भङ्ग! गीत बड़ी सुथरी साधना है। रहो कहीं, उड़ान कितनी भी भरो पर टेक एक ही - ध्रुव नहीं छोड़ना है : जैसे उड़ि जहाज को पंछी पुनि जहाज पै आवै। हज़ार बार इधर-उधर का अन्तराकाश नापना और बार-बार ध्रुव पर लौट आना और क्या है! गीत ही तो! गीत सिद्ध हो जाये तो मनुष्य सिद्ध हो जाये। जीवन का गीत किसी कृती को ही सिद्ध होता है : ऐसा कृती, जो श्वासों के शिल्प का कल्पचेता हो और इसके लिये आवश्यक यह है कि वह चेतन सम्भूत अम्बराग्रसरापेक्षी होकर भी धरा को न छोड़े, अपनी जड़ों से जुड़ा रहे। डॉ. श्यामपाल सिंह मौर्य 'श्याम शशितोष' इस प्रासङ्गिक सन्दर्भ में एक उल्लेख्य अभिधान हैं।
डॉ. शशितोष आनन्दमङ्गल के गायक हैं। उनकी कला-चेतना सूत-सूत नहीं नापती, वह तो सोते की तरह प्रवाहित बेमाप मस्ती की अभ्यस्त है। उनकी आत्मा में जब अनियन्त्रित धड़ंग उठती है, तभी वे कुछ काग़ज़ों पर छींटते हैं अन्यथा अपने जगद्व्यवहार में रत रहते हैं और इसका कारण है उनका ज़मीनी जुड़ाव। जिसने अपनी माटी का वेद पढ़ लिया, वह विद्याव्यवहार का व्यास हो गया। वे आज भी अपनी माटी से नहीं कटे और इसीलिये उस वेदामयूता माटी की खरी मस्ती उनकी प्रस्तृति, प्रस्तुति और स्तुति पर तारी है। मस्ती एक धुन है जो कृत्रिम छन्द नहीं स्वीकारती। मस्ती अगर मातृभूमि के व्यतीत-अतीत के गात और गीत गोत्र की हो तो वह आजन्म चुकती नहीं और इसीलिये डॉ. शशितोष के स्वर में वह बार-बार उभर आती है। लोकस्वर उनकी अपनी विशेषता है। लोकस्वर मूलतः भारत की आत्मा गाँवों की आवाज़ है। ग्राम्य स्वर अगर नागर होने की कोशिश करे तो असावधानीवश प्रायः मूल लालित्य खो देता है। शशितोषजी ऐसा कोई नाहक़ प्रयोग नहीं करते। ग्राम्यभाव और अमलिन आंचलिकता आज भी उनके आत्मराग में पूरे वैभव से विलसित है - 'गीत कौस्तुभ' उनकी आत्मा के इसी लोकवैभव का शब्दगुच्छ है।
भावस्तदभावभावनम के भावन्याय से की भावनाओं का अपार पारावार जब उमड़ता है तो उसका ज्वार-उद्गार सहृदय के अन्तर्ब्रह्माण्ड में दिग्-दिगन्त तक संक्रान्तिकाल के पलों को जीने लगता है। उनकी क़लम की जाग्रत जह्नुजा की अनाविल-अविरल धार कूल-कगार-कछार को पछाड़-पछाड़ निरन्तर अग्रसर रहते हुए तन्द्रालसित तटस्थों को जीवन का मर्मर राग सुनाती चलती है। सजग और स्पष्ट सौन्दर्यदृष्टि से उनकी काव्यसृष्टि राजभवनों की काट-छाँट समेटे उपवनों की शोभा नहीं, वह तो नितान्त निर्जन का नीराजन करते अनायास उग आयी वनश्री है। मरुस्थल की छाती से स्नेह सोख कर चिलकती तपन को परास्त करने की कठजीविता उसका अभीष्ट है। न ममैवैते न तवैवैते न तटस्थस्यैवैते की स्थितियाँ श्याम शशितोषजी की कविताओं की भावन-परिणति है। प्राकृत कविताई के इस शुभागत गीत-कौस्तुभ का हम स्वागत करते हैं और प्रकृत प्रातिभ कवयता के विद्वत् व्यक्तित्व का मङ्गलाभिषेक..
गीत कौस्तुभ / डॉ. श्यामपाल सिंह मौर्य श्याम शशितोष / लोकहित प्रकाशन, दिल्ली / सजिल्द प्रथम संस्करण 2017 / ISBN : 978-93-81531-61-7 / मूल्य ₹ 350/-
Tuesday, 31 July 2018
Paanchjanya Samman
राष्ट्रीय चेतना के काव्य सृजन एवम् समाजसेवा हेतु बरेली के डॉ. राहुल अवस्थी को उत्तर प्रदेश के राज्यपाल माननीय श्री राम नाईक ने श्री शिरडी साई सेवा ट्रस्ट, बरेली की ओर से 'पाञ्चजन्य सम्मान' प्रदान किया। इस अवसर पर ट्रस्ट के सर्वराकार पण्डित सुशील कुमार पाठक एवम् नगर विधायक डॉ. अरुण कुमार की उपस्थिति में डॉ. राहुल अवस्थी की गीतकृति - हमें तुम गुनगुनाओगे का विमोचन भी श्री राम नाईक ने किया।
Wednesday, 25 July 2018
कारगिल
स्वर उचारे अगर मिल सकेंगे कभी
तो हमारा मिलन भी असम्भव नहीं
पल गुज़ारे अगर मिल सकेंगे कभी
तो हमारा मिलन भी असम्भव नहीं
प्रिय रहे तुम हमें सारे संसार से
पर कभी कर न पाये तुम्हें प्यार हम
बीच में बह रही जो समय की नदी
इसके उस पार तुम, इसके इस पार हम
दो किनारे अगर मिल सकेंगे कभी
तो हमारा मिलन भी असम्भव नहीं
पल गुज़ारे अगर मिल सकेंगे कभी
तो हमारा मिलन भी असम्भव नहीं
क्षुब्ध धरती-गगन, क्षुब्ध पानी-पवन
क्षुब्ध वातावरण, क्षुब्ध परिवेश है
प्यार तुमसे बहुत है, बहुत है - बहुत
किन्तु इस वक़्त प्रियतम तो ये देश है
चाँद-तारे अगर मिल सकेंगे कभी
तो हमारा मिलन भी असम्भव नहीं
पल गुज़ारे अगर मिल सकेंगे कभी
तो हमारा मिलन भी असम्भव नहीं
साथ में प्राण! आषाढ़ का एक दिन
फिर बिताने को लेंगे हज़ारों जनम
नेह से बाँचना नित्य रघुवंश तुम
अब न पढ़ना अभिज्ञान शाकुन्तलम
स्वप्न सारे अगर मिल सकेंगे कभी
तो हमारा मिलन भी असम्भव नहीं
पल गुज़ारे अगर मिल सकेंगे कभी
तो हमारा मिलन भी असम्भव नहीं
#Kargil #War #Memorial #Song #Vijay #Divas #Tiranga #National #Flag #martyrs #Soldiers
Saturday, 21 July 2018
Wednesday, 18 July 2018
महिला लेखन की लप्पाडुग्गई का डिसेक्शनल स्टिंग
इधर लगभग हर तथाकथित एक्ट्रेस लौंडिया जैसे अपेक्षाकृत अन्य अपने अनन्य एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी एक्सपोज़िया बयान और प्रमाण से अपनी रोज़ी-रोटी का गारण्टी-पर्सेण्ट जुगाड़ती है, वैसे ही एक अरसे से प्रायः महिला कथाकाराएँ कामकीलित-कामकलित शब्दचित्रण से सनसनीखेज़ सफलता की सम्भावनाएँ प्रकाशक-प्रकाशक, पाठक-पाठक तलाशती रही हैं। किसी-किसी किताब की दमपेल कामुक भंगिमाओं की भयावह भरमार में साधारणतः कथासूत्र तलाशना होता है कि है भी कि नहीं! तू डाल-डाल, मैं पात-पात, पर काठ की हाँडी चढ़े भी तो कहाँ तक! कामोन्मुख लेखन यद्यपि कोई डाल-तोड़ा मुद्दआ नहीं, तो भी गुह्य सम्बन्ध-व्यवहारों और निजी जीवन-व्यापारों के कपड़े उतारने वाले स्वीकारों-उद्गारों में महारत-हासिल कुछ छपक्कड़ों ने उखाड़-पछाड़ के अखाड़े में बड़ी चतुराई से अपनी छीछड़ीय छाप छोड़े बिना इतिहासनिर्मात्री प्रतिभा सिद्ध होना चाहा पर छीछड़े धरोहर नहीं बनते।
जब इश्क़-मुश्क़ जाहिर होने से नहीं बचते तो ख़ैर, ख़ून, खाँसी, ख़ुशी भी छिपने से रहे। बड़ी ठेठ और जुगुप्साकारक ग्राम्य कहावत है - पानी-हगा उतराय क रही का! माफ़ करें बड़ी-बड़ी वाली लेखिकाएँ मैडम! नियति अपनी-अपनी, पर नीयत को नज़रअन्दाज़ कब तक और कैसे किया जा सकता है! नीयत नज़र में चढ़ी भले न हो, नज़र ज़रूर आ गयी है : निरुपमजी न जाने कहाँ से अदबदाकर अचानक टपक पड़ीं। बना-बनाया खेल ग्लैमलेस हो सकता है। धत् तेरे की! यद्यपि इसका अर्थ यह भी नहीं कि किसी महिला कथाकार ने समकालीन परिदृश्य और परिवेश में सार्थक कुछ किया ही नहीं। बहुत कुछ ऐसा है जिसे बाज़ार और विचार के सहज दबाव और प्रभाव से इतराया जाकर गुमानलायक कहना अतिकथन न होगा, फिर भी सब एक-सा स्वीकारना पाँचों उँगलियाँ बराबर मानने की मसल होगी। चलो, कोई तो आगे आया ये विषय खरा-खोटा करने, पर महिला होकर भी महिला-कथाकारों को क्या इस तरह राडार पर लेना ज़रूरी था!
अनैतिकता और अश्लीलता के पहलू समय-सन्दर्भों में पर्याप्त मुबाहिसे का विषय हो सकते हैं परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि अदालत के कटघरे तक पहुँचने के ख़्याल से पहले अचूके मनमाना करते जाया जाये! ये तो बेहयाई हुई या बेग़ैरती या फिर ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैया। चलती का नाम गाड़ी भले हो पर आदर्श तो नहीं न! समाजव्यवस्था और नीति भी आख़िर कोई चीज़ है। पूरब पूरी तरह पश्चिम हो गया क्या : भारत अभी अमेरिका तो हुआ नहीं ! जीवन के लिये कला कला के लिये से सर्वदा बेहतर है। महिला-कथाकाराएँ कई स्थानों पर बिकने के चक्कर में अपनी मस्तरामिता से जमकर बाज़ नहीं आयी हैं पर संयोगवश निरुपमजी जैसे क्लोज़सर्किट कैमरे कहीं न कहीं निकल ही आते हैं। व्यवहृत जातिवादी व्यवस्था का विरोध और व्यवहृत जातिगत व्यवस्था का विरोध दो अलग बातें हैं और नफ़ा-नुकसान अपने-अपने, पर आख़िरकार ख़तरे दोनों के एक-से ही हैं।
औरत होकर औरत के हक़ में लब खोलना, बोलना नो प्रॉब्लम, पर औरत के हक़ की समीक्षा करना - ये ज़रा कठिन काम है और इने-गिने नाम ही ऐसा करने वाले निकलेंगे पर डॉ. निरुपम शर्मा ये काम बख़ूबी कर निकली हैं। स्वच्छन्द स्त्री-स्वातन्त्र्य के नाम पर माँगहीन बड़ी बिन्दी ब्रिगेड की सर्वसाधारणतः पुरुषमात्र के प्रति गाली-गलौज का छद्मक्रम और उनके इंटेंशनल वीभत्स रेखांकन जैसे काम को नज़र में लेने जैसा ज़ुर्रती और अप्रतिम काम करने के कारण भी निरुपमजी निरुपम हो ली हैं। उनका अन्वयकर्म उन्हें अनन्वय करता है। समीक्षा के निकष पर नीर-क्षीरिता उन्हें भलीभाँति पता है और हंसकर्मा होना उन्हें अच्छी तरह आता है पर प्रभावात्मक और निर्णयवादी आलोचना से वे बची हैं। प्रकल्पन, प्रकथन, परीक्षण, प्रेक्षण और परिणमन के क्रम में प्राप्त आँकड़े उन्होंने प्रस्तुत भर कर दिये हैं : रामचन्द्र शुक्लेनियन शैली उनका उद्दिष्ट भी नहीं शायद। उद्धत उपोद्घात और उग्र उपसंहारस्वरूप दण्डात्मक उद्घोषणा शुद्ध शोधप्रज्ञ को अलम कहाँ! मद्देनज़र इसके और भारतीय सांस्कृतिक मूल्यमान की उत्कट हामी होने के भी संग्रहण, भावन और विश्लेषण-उपरान्त प्रस्तुति-पथ तक शोधलेखिका ने आपा कहीं नहीं खोया है। पाठकों के हस्तगत होने हेतु प्रकाशित होने जा रहे प्रस्तुत प्रबन्धान्तर्गत परिशिष्टपर्यन्त लेखनीय मर्यादा और लेखकीय गरिमा दोनों को सहजतः साधे रखा गया है। सिंहैषणा नहीं, गवेषणा डॉ. निरुपम की चिन्तना और चेतना को अभीष्ट है। उद्भट और अलीक लेखिका की हंसस्विता के प्रति असंख्य साधुभाव।
कृति (शोधग्रन्थ) हिन्दी महिला कहानीकारों के कथा साहित्य में अश्लील एवं नैतिकता के विविध आयाम / डॉ. निरुपम शर्मा / डिमाई साइज़ सजिल्द / प्रथम संस्करण २०१७ / ISBN 978-93-81531-58-7/ लोकहित प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली / मूल्य ₹ ७९५/-
Tuesday, 17 July 2018
बरेली कॉलेज बरेली : स्थापना दिवस
अध्यापन-अध्ययन यजन-रत
गहन मननरत सुमन-सृजनरत
कृतियों का उद्देश्य बताती
श्रुतियों का सन्देश सुनाती
यशोध्वजा लहराती पल-पल लोल बरेली कॉलेज की
जय बोल बरेली कॉलेज की, जय बोल बरेली कॉलेज की
सम्प्रभुताओं का स्वरित्र है
समरसताओं का चरित्र है
ऋजुता का सुपवित्र इत्र है
ऋषिता का जीवन्त चित्र है
ये स्वातन्त्र्य-समर का लेखा
इसने इंक़लाब को देखा
आत्मतुला पर तपस्विताएँ तोल बरेली कॉलेज की
जय बोल बरेली कॉलेज की, जय बोल बरेली कॉलेज की
यजुस्सामऋकमय सुज्ञान है
ज्ञान अनाविल प्रवहमान है
चरण-चरण आचरणवान् है
श्वास-श्वास हिन्दोस्तान है
वैदुष्यों की व्यासपीठिका
प्रज्ञापूर्य विराट् वाटिका
धर्मधुरीण धरोहर है अनमोल बरेली कॉलेज की
जय बोल बरेली कॉलेज की, जय बोल बरेली कॉलेज की
जीवनक्रीड़ाओं का दर है
संस्कृति-सूक्त-कला का घर है
वैज्ञानिकताओं का स्वर है
शैक्षिकता अक्षर-अक्षर है
संवर्धन-संसाधन-साधन
अधुनातन विधिबन्ध प्रबन्धन
प्रस्तृत पृष्ठों की पुस्तक प्रिय खोल बरेली कॉलेज की
जय बोल बरेली कॉलेज की, जय बोल बरेली कॉलेज की
अन्धेरों पर वार करेंगे
जगती पर उजियार करेंगे
विभुता का विस्तार करेंगे
स्वप्न सुभग साकार करेंगे
काठिन्यों की चट्टानों पर
सारल्यों के हस्ताक्षर कर
प्रस्तृति में सांस्कृतिक प्रभा शुचि घोल बरेली कॉलेज की
जय बोल बरेली कॉलेज की, जय बोल बरेली कॉलेज की
#Foundation_Day #Bareilly_College_Bareilly
Thursday, 12 July 2018
Friday, 6 July 2018
Wednesday, 4 July 2018
सन्ध्या
क्या बतलाऊँ मैं कहाँ-कहाँ तक सङ्ग तेरा ही है ईश्वर
बेरङ्ग जहाँ में यहाँ-वहाँ हर रङ्ग तेरा ही है ईश्वर 🌻
#Random #Click #Balcony #Evening
Tuesday, 3 July 2018
Sunday, 24 June 2018
करेगा क्या
तुनुन-तारा तुनुन-तारा तुनुन-तारा करेगा क्या
तुझे मिल भी गया गर मैं तो झख मारा करेगा क्या
मेरी धरती मेरे अम्बर को कब से घेर रक्खा है
मेरे सूरज को अब तू चाँद से तारा करेगा क्या
बहुत सारी मेरी यादें हैं तेरे पास - कहता है
मेरी यादें इकट्ठा करके भण्डारा करेगा क्या
न अब तक ये ही कर पाया, न अब तक वो ही कर पाया
जो अब तक कर नहीं पाया वो अब सारा करेगा क्या
पराये माल से, हथियार से, औज़ार से तू है
यूँ घर में घुस के तू दुश्मन को ललकारा करेगा क्या
जनम से ही सिवा धोखे के जो कुछ भी नहीं पगले
वो आगे जा के अँधियारों में उजियारा करेगा क्या
धुएँ की नींव पर अरमाँ का इक गुम्बद उठा करके
तू अपना लबलबा मेरी तरह पारा करेगा क्या
मेरी शोहरत मेरी ताक़त तो तूने बाँट ली लेकिन
मेरी क़िस्मत मेरी हिम्मत का बँटवारा करेगा क्या
बिना परमिट बिना लाइसेंस जो यूनिट चलाई है
मसअला ग़ैरकानूनी है - चुकतारा करेगा क्या
तेरी आदत है - जिसको भी पकड़ता, छोड़ देता है
जो बेदम हो चुका हो फिर वो बेचारा करेगा क्या
मैं ये प्रोग्राम भी कर लूँ, मैं वो प्रोग्राम भी कर लूँ
अबे! इस उम्र में अब मुझको बंजारा करेगा क्या
सुलझना था तुझे, उलझा दिया कितनों को मुद्दों-सा
ज़माना पूछता है - इनका निपटारा करेगा क्या
तेरी जो भूख है, वो आग, मेरी प्यास पानी है
बरफ़ को अब बता ऐसे में अंगारा करेगा क्या
जिन्हें आगे की ख़ातिर अपने पीछे छोड़ आया है
मिले रस्ते में तो चेहरे पे लश्कारा करेगा क्या
मुझे मालूम है तुझ पर किसी का फ़र्क़ क्या पड़ना
मगर घर की तबाही पे भी पौ बारा करेगा क्या
हक़ीक़त की ज़मीं पर आसमाँ ख़्वाबों का रख के कह
जो पहले कर चुका है अब वो दोबारा करेगा क्या
तेरा ही ख़ून पानी हो-हो के तुझको पुकारे है
मिला मौक़ा अकेले में तो चीत्कारा करेगा क्या
Monday, 4 June 2018
पर्यावरण दिवस
हमें धारे सँवारें जो, उसे हम बाँट देते हैं
हमें बाँटें सदा जीवन, उसे हम पाट देते हैं
हमें जो घाव देते हैं उन्हें हम भाव देते हैं
हमें जो छाँव देते हैं, उन्हें हम काट देते हैं
हमें जो फूल देते हैं, उन्हें हम ख़ार देते हैं
हमें जो हर ख़ुशी देते, उन्हें धिक्कार देते हैं
यही इंसान होते हैं, यही इंसानियत है क्या
हमें जो ज़िन्दगी देते, उन्हें हम मार देते हैं
हमें आबाद करते जो, उन्हें बरबाद करते हैं
न हम इस पर कभी कोई उचित संवाद करते हैं
कि जिनके सार्थक अस्तित्व से अस्तित्व हैं अपना
उन्हें महदूद कर हद में दिवस की, याद करते हैं
न ऐसा हो प्रगति के हम नये आयाम दे डालें
ज़रा आराम को जीवन-मरण का नाम दे डालें
प्रदूषित वायु-जल - ये सब हमें नाकाम कर देंगे
परस्पर हम स्वयं की मौत को अञ्जाम दे डालें
न ऐसा हो कहीं इक दिन सकल संसार जल जाये
समय से पूर्व सबकी ज़िन्दगी की धूप ढल जाये
हमें जब चेतना आये, सुमति जागे हमारे, तब
समझने का सँभलने का सही अवसर निकल जाये
न जब कुछ भी मिलेगा शुद्ध, हम ये मन बना लेंगे
न खाने योग्य जो होगा उसे ले स्वाद, खा लेंगे
मयस्सर कुछ न जब होगा हमें, हम लोग तब अक्सर
ज़रूरत के लिये इक दूसरे को चीर डालेंगे
ख़ुशी की चाह में ख़ुदगर्ज़ियों का जाप कर बैठें
असल में पुण्य के बदले हज़ारों पाप कर बैठें
हथेली पर लिये घूमें बदलते दौर में दुनिया
अँगुलियों की शरारत पर अँगूठाछाप कर बैठें
अहम करना न ख़ुद पर, दीन-दुखियों पर रहम खाना
बड़ी राहत रहेगी दोस्त, ग़म खाना व कम खाना
यही इंसान को क़ुदरत हमेशा सीख देती है
बुराई हो भले कितनी, भलाई की क़सम खाना
भला ये तो नहीं है जब ज़रूरत हो, तभी सोचें
भले मानुष, तनिक अपने अलावा भी कभी सोचें
इधर जो कर रहे हैं वो भला है या बुरा - इस पर
अगर कुछ सोचना है तो अभी सोचें, अभी सोचें
स्वयं पर्यावरण अपना सुरभि-संयुक्त कर देंगे
सुधारों के प्रयासों को समर्पणयुक्त कर देंगे
हमें मिलकर शपथ यह एक स्वर से आज लेनी है
कि दुनिया को यथासम्भव प्रदूषणमुक्त कर देंगे
Wednesday, 30 May 2018
Tuesday, 29 May 2018
KaviSammelan
#अपराजिता #प्रभात_ख़बर #लक्खीसराय #बिहार #कवि_सम्मेलन #जयकुमार_रुसवा #फ़ारूक़_सरल #विकास_बौखल #भालचन्द_त्रिपाठी #शबीना_अदीब #राहुल_अवस्थी
Saturday, 26 May 2018
Wednesday, 23 May 2018
हमारे पूर्व पुरुषों का प्रवाहित प्यार है गङ्गा
विरल आदर्श का अविरल तरल व्यवहार है गङ्गा
समुज्ज्वल चेतनाओं की अनाविल धार है गङ्गा
गरलत को सरलता से पचाकर के अमृत देती
हमारे पूर्व पुरुषों का प्रवाहित प्यार है गङ्गा
न गर त्यागी प्रदूषण की डगर, गङ्गा नहीं होगी
यहाँ गङ्गा तलाशेंगे मगर गङ्गा नहीं होगी
हमारी सभ्यता का सार है आधार है गङ्गा
कहाँ फिर संस्कृति होगी अगर गङ्गा नहीं होगी
समय की पीठ पर असमय धरा की धूप धर देंगे
स्वभावों में अभावों का भयङ्कर भाव भर देंगे
नहीं गङ्गा रहेगी तो महाभारत सुनिश्चित है
न होगा देवव्रत कोई, शिखण्डी भीड़ कर देंगे
न ऐसा हो सुरक्षा की सुदृढ प्राचीर गल जाये
रुकें निर्माण प्राणों में प्रणों में पीर पल जाये
प्रतापी भीष्म गङ्गा ही यहाँ उत्पन्न कर सकती
शिखण्डी जन्मने की फिर न कोई रीति चल जाये
शपथ लेनी पड़ेगी ये कि हर विषता पचानी है
हमें हक़ की हथेली फ़र्ज़ की मेहँदी रचानी है
हमें जीवन बचाना है हमें संस्कृति बचानी है
हमें भारत बचाना है हमें गङ्गा बचानी है