Saturday, 3 June 2017

गीतिम गंगोत्री में बिम्बित बिम्ब-बयन

प्रतिभा वृथा नहीं जाने देना चाहिए। वृथा जाने की व्यथा सालों-साल सालती है। सालों-साल सालने वाली व्यथा कथाओ का कारण होती है। कथाओ का कारण जीवन के रण को आचरण देता है और आचरण में प्रतिभा का सञ्चरण चरण-चरण व्यक्तित्व-सिद्धि का कृतिद्वार बनता है। व्यक्तित्व-सिद्धि व्यक्ति की वैयक्तिक योग्यता है। योग्यता साधना-स्यन्दन की गतिमानता का वरदान है और गतिमानता चैतन्य का निदर्शन, किन्तु चेतना इस सत्य का साक्ष्य है कि योग्यता प्रतिभा की उपलब्धि है, न कि उसका उपादान। योग्यता प्रतिभा का प्रतिदान है। योग्यता प्रतिभा का परिणाम है। योग्यता प्रतिभा का परचम है। योग्यता पायी जा सकती है किन्तु प्रतिभा नहीं। प्रतिभा तो होती है - जन्मजात। योग्यता तो संसार के समराङ्गण में सांसों का सङ्गर सञ्चालित करते-करते आती है परन्तु प्रतिभा तो परम प्रभु से ही प्राप्त होती है। योग्यता निर्माण तो कर सकती है किन्तु सर्जन का स्पन्दन तो प्रतिभा से ही स्फुरित होता है। सृजनात्मक सञ्चेतना के स्फुलिङ्ग तो प्रतिभा के ही परिणमन हैं। जीवन मूलतः निर्माण नहीं, सृजन है। जीत कर भी हार जाना निर्माण का प्रति-प्रभाव है परन्तु हार करके भी जीत जाना सृजन का सङ्केत है। यह सृजन करना किसी न किसी तरह कला है और कला का मूल है प्रतिभा। प्रतिभा प्रायः कलाओ की अधिष्ठात्री शक्ति है। ललित कलाओ का परिकर प्रतिभा का परमुखापेक्षी है। कला का स्थूल्य जिस अनुपात में सूक्ष्म होगा, प्रतिभा का दायित्व उसी अनुपात में वार्धक्य पाता जाता है। काव्यकला ललित कलाओ की शिखा है और इसके सर्वमान्य तीन हेतु हैं - प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास; लेकिन इसमें सबसे आवश्यक प्रतिभा को ही कहा गया है। प्रतिभा काव्यकर्ता के लिये सर्वाधिक आवश्यक है। इसके अभाव में अनर्घ काव्य असम्भव-सा है। काव्य-प्रतिभा भी स्थायी भाव-सी ही हममें निहित होती है जो उपयुक्त अवसर पर स्वयमेव विहित होती है। प्रतिभा का पल्ल्वन-पुष्पन कब हो उठे, प्रातिभ को भी पता नहीं होता। उस पर तो ऐसे में ख़ुमारी ही ऐसी तारी रहती है कि उसे इस समय में सब कुछ स्मृत हो कर भी विस्मृत-सा ही रहता है। काव्यप्रसव सामान्य घटना नहीं है : आपे के लाले पड जाते हैं। दुनिया का होकर भी काव्यकार इस संसार का नहीं रहता। संसार के सार को बिसार कर भी सारवान् रहना अपने आप में असाधारण-सी बात है। इस पार रहकर भी उस पार पहुंचना और उस पार पहुंच कर भी इस पार का रहना अच्छे और सच्चे काव्यकार की पहचान है। चेतना के स्तर पर सृजनात्मक परिव्रजण का आभिव्यक्तिक उरेह व्यक्ति का कर्तत्वफलन है किन्तु अभिव्यक्ति की ईमानदार ज़िम्मेदारी अनुभूति की प्राञ्जलता और सघनता से आती है। डा० ब्रजेश कुमार मिश्र रचनात्मक अभिव्यक्ति के पटल पर एक ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनकी अनुभूतियों को उनकी प्रतिभा की थपकी मिली है। ब्रजेशजी प्रकृत प्रातिभ कवि हैं। व्युत्पत्ति की प्रभाव-प्रेरणा अवश्य उनको निदेश देती है किन्तु अभ्यासी कवि तो वे क़तई नहीं हैं, यह शत-प्रतिशत सत्य है। इधर अनेक अभ्यासी कवि कौकिया रहे हैं। कुछ रोज़ी-पानी के जुगाड में हैं, कुछ पेट पाल रहे हैं, कुछ बौद्धिक व्यायाम कर रहे हैं, कुछ दिमाग़ी खुजली शान्त कर रहे हैं, कुछ वैचारिक अपच की पच-पच पचा रहे हैं। कुछ पूंजीपति-पत्नी कविता को ठलुआई समझते हैं, तो अपना खाली टाइम पास कर रहे हैं : पत्र-पत्रिकाओ में ही शोभा बरनी जाये। मैग़्ज़ीनों और अखबारों को भी तो कुछ मसाला मिले, उनको भी तो कुछ चिकने चेहरे चाहिए। हंस के नाम पर न जाने कितने भांड-भुशुण्डि भंडैती में मल उलीच रहे हैं। ऐसी स्थितियां कविता के भविष्य के लिये ख़तरे की घण्टी हैं लेकिन निराशा का कारण नहीं; क्योंकि कमल कीचड में ही खिलता है। डा० ब्रजेश कुमार मिश्र ने उस दौर में भी शुद्ध कविता का काम नहीं छोडा, जब कविता में नवता के नाम पर फ़्यूज़न-कन्फ़्यूज़न और इल्यूज़न का भयावह दौर पूरे परिवेश पर तारी और जारी था। उन्हें कविता करके कुछ कमाना नहीं है - मैं शे'र कहता हूं यारों सुकून-ए-दिल के लिये, मुशायरे के लिये शायरी नहीं करता। कविता तो अपने आप में एक उपलब्धि है, बाक़ी तक़ाज़े तो बाद की बात और अपनी जगह हैं। मम्मट के कथन के अपने मायने हैं कि काव्येयशसे अर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये, सद्यः परिनिर्वृत्तये कान्तासम्मितोपदेशयुजे; किन्तु काव्योपलब्धि के एकमेव मूल भाव के लिये तो विश्वग्रन्थ श्रीरामचरितमानस में बाबा तुलसी तक स्पष्ट शब्दों में उवाच गये हैं - स्वान्तःसुखाय। किसी की भी बडभागिता यह हो सकती है कि वह कवि हुआ। अहोभाग्य ही कवि होते हैं। डा० मिश्र इस दृष्टि से सम्पूर्णतः बडभागी हैं। सबसे बडी बात तो यह है कि वे कुछ को छोडकर कविता की आलोचना की राजेन्द्र यादवीय परम्परा के मुंह पर झन्नाटेदार तमाचा हैं। साहित्य की ऐसी पैशाचिक प्रवृत्ति जब यह कहती है कि यह कविता से मुक्ति का काल है, तब उनकी मौन रचनाधर्मिता इस बात का उद्घोष है कि यह काल ऐसी प्रवृतियों से मुक्ति का काल भी है। कविता के नयेपन के नाम पर व्यभिचार करने वालों से उनकी कभी नहीं निभी और न निभने की कोई सम्भावना है। इसका कारण है उनकी निश्छल भावप्रवणता। कविता उनके लिये मस्तिष्क की कुटिल क़वायद नहीं, हृदय की निर्मल जलधार की कल-कल है। कल के लिये विकल न होना ही उनका साहित्यिक सन्तत्व है। आज के फेर में कल के साथ कैसी भी कलाकारी उन्होंने कभी नहीं की। नकल करना उन्हें आया नहीं। बेमतलब की अलम्बरदारी उन्हें पचती नहीं। मतलब की यारी उन्हें रुचती नहीं। मतों की ठेकेदारी उन्हें जंचती नहीं। ऐसा करने वाले उनकी कबीराना फटकार से बचे नहीं। अशोक वाजपेयी जैसे लोग भी जब उनके भावतर्कों के कांटे पर आते हैं तो कराहते हुए निरुत्तर नज़र आते हैं। मन-वचन और कर्म से बुद्धि और आत्मा से शुद्ध व्यक्ति ही ऐसा कर सकता है। हर देवदत्तीय हरक़त के लिये वे एक सिद्धार्थीय सम्मति हैं। उनकी निगाह आपकी ज़ेब पर नहीं, उसके नीचे धडकते दिल पर है। उनकी सात्विक प्रतिभा की परख आप इस निकष पर कर सकते हैं कि अपने चिकित्सकीय कर्म को उन्होंने पेशा नहीं, सेवा ही बनाये रखा। अपने कर्तव्यों को पूरी ईमानदारी से पूरा करना प्रकारान्तर से मानवता की ही सेवा है। साहित्य भी मानुषिकता की साधना है, कविता इंसानियत की आराधना है, जिसे उन्होंने पूरे मनोयोग से किया है और ऐसा वे इसलिये कर पाये हैं कि उनकी कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा का कोई भी भाग किसी से कमतर नहीं। उनकी प्रतिभा कदापि पथच्युत नहीं हुई, इसी कारण वे व्यक्ति से व्यक्तित्व हो सके। उनका समग्र कर्म-दर्शन और समस्त साहित्यिक सर्जन उनके जीवनमानों का आईना है। भावनाओ के साथ बढना, उनको पढना और गढना उन्हें बख़ूबी आता है। वस्तुतः डा० ब्रजेश कुमार मिश्र की कारयित्री प्रतिभा लासानी और भावयित्री प्रतिभा बेजोड है। डा० ब्रजेश कुमार मिश्र का सबसे बडा वैशिष्ट्य यह है कि आपुलि-आपुलि के आपाधापी भरे जानलेवा दौर में भी अपना उल्लू सीधा करना उन्हें नहीं आ सका। निहित स्वार्थों की बेतरह सिद्धि के लिये छद्म-आन्दोलनों के बन्दूक की नाल सीधी करना उनके लिये गोहत्यावत है। तथाकथित समकालीन कविता के कन्धे पर अपनी अयोग्यता को चढाकर बडा करने की उनको आवश्यकता भी कौन-सी पडी है। बैसाखी की ज़रूरत तो चरण न होने पर पडती है। कविता का क न जानने वाले न जाने कितने असाहित्यिक अटपटे आइटम अपने को अकविता-टाइप आन्दोलनों से कवि कहलाने के काम में लग गये। अगीत आन्दोलन भी ऐसी ही एक अतिरेकी, अरुचिकर और असफल उपज रहा। मज़ा देखिए, बनना और होना वही है, जिससे विरोध और विद्रोह। गुड खाके गुलगुलों से परहेज ऐसे ही किया जाता होगा। उच्छिष्ट विचारों की बजबजाती हुई सडान्ध मारती लुगदी की समकालीनता के नाम पर जुगाली करने के अभ्यासी रसिकों को न अदरक से मतलब है और न रोटी से। सोचना यह है कि क्या कभी मानवीव मूल वृत्तियां-प्रवृत्तियां नशा सकेंगी! विचारों की अदालत में रागात्मकता की क्या क़त्लफ़र्मानी हो सकेगी! और अगर हो भी गयी, तो क्या मानवीय भावनाओ को निर्मूल किया जा सकेगा! हज़ार-पांच सौ साल क्या, हज़ारों-हज़ार साल पहले लिखे गये ऐसे साहित्य का आज भी लोगों के लबों पर लास्य देखने को मिल जाता है, जो मानुषिक सम्भावनाओ और स्वभावों का गवाह है किन्तु पांच बरस पहले लिखे वैचारिक कबाडे की कोई शिनाख़्त करने तक को तैयार नहीं। मैं विचारों का विरोधी हूं, यह कोई कह दे तो वो मूढ ही होगा किन्तु भावनाओ को भुला बैठने वाला तो जड ही होगा - ईडिअट। वेद हों या पुराण, उपनिषद हों या आरण्यक, संहिताएं हों या स्मृतियां, रामायण जैसा ऐतिहासिक महाकाव्य हो या महाभारत जैसा महार्घ ग्रन्थ, श्रीमद्भगवद्गीता जैसी कर्मप्रतिष्ठापक पुस्तक हो या श्रीरामचरितमानस जैसा विश्वनीति-तीर्थ, पृथ्वीराज रासो हो या परमाल रासो, पद्मावत हो या बीजक, सूरसागर हो या बिहारी की सतसई, भारत-भारती हो या कामायनी, कुरुक्षेत्र हो या सरोज-स्मृति, अलिफ़ लैला हो या गुल-ए-नग़्मा, ओडिसी हो या इलिअड, रोमियो-जूलियट हो या जूलियस सीजर, ऐसी चीज़ें आज भी पढी-सुनी जा रही हैं। क्या इनमें विचारतत्व नहीं है? और अगर नहीं है तो आज भी इनको नीतिगत तौर पर मौक़े-बेमौक़े क़ोट किया जाता है तो क्यों! समस्या रागात्मकता में नहीं है, समस्या है रागात्मकता के विरोधी कूढमग़ज़ों में, जो इस दृष्टि से अक्षम हैं। पता नहीं, ऐसे लोगों के बच्चे कैसे होते होंगे! ऐसे लोगों को विवाह भी नहीं करना चाहिए और विवाह ही क्या, ऐसे लोगों को जन्म भी नहीं लेना चाहिए क्योंकि जन्म भी तो कहीं न कहीं रागात्मकता का ही परिणाम है। आप दुनिया में रह रहे हैं, जिये जा रहे हैं, इसका सीधा सा तात्पर्य यह है कि आप राग के हवाले हैं, आप रागमुक्त नहीं हैं, आप रागबद्ध हैं - इस भौतिकता से, इस समाज से, इस शरीर से। आपको अगर इतनी ही नफ़रत है इस मानव-जीवन के इस शाश्वत तत्व से, इस सनातन सत्य से, रागात्मकता से, तो आपको ख़त्म कर लेना चाहिए स्वयं को; क्योंकि जब तक इन श्वासों से सम्बन्ध समाप्त नहीं होता, ये राग-बोध आपको सालता रहेगा। अपने ओढे हुए सिद्धान्तों, अपनी वैचारिकता के साथ इस क़दर आबद्ध होना भी तो उस राग की ओर इशारा करता है, जिसका आप पुरज़ोर विरोध कर रहे हैं। राग तो मनुष्यमात्र की विशिष्ट उपलब्धि है और मनुष्य ही क्या, और अनेक प्राणी भी इस तत्व से सम्पृक्त मिलते है। राग का विचार मनुष्यता की धरोहर है, जिसे किसी भी क़ीमत पर खोया नहीं जा सकता। रागात्मकता का खो-विनश जाना हमारा सबसे बडा नुकसान होगा। तो भाई, आप अपना पेट पालने का काम करें और हो सके तो ब्रजेशजी जैसे रचनाकारों को अपना काम करने दें। काहे को कुल्हाडी पर पैर दे मार रहे हो! एक ज़रूरी बात! डा०ब्रजेश कुमार मिश्र के लेखन पर एक बडा आरोप है - छायावादी कथ्यशैली और शिल्प का। हां, ये बात तो है और आरोप में दम भी, किन्तु क्या किसी से प्रभावित होना किसी को अपराधी सिद्ध करने को पर्याप्त है! विशेषकर तब, जब किसी शुद्ध कालनिर्मात्री सिद्धि से प्रभावित होने की बात हो! ब्रजेशजी जब जन्मे होंगे और तरुणा रहे होंगे, वह समय निश्चित तौर पर कविता के शाश्वत स्वरूप के हत्यारे हथिया नहीं पाये होंगे। साहित्यिक परिवेश छायावादी स्वाद और स्वर से विरक्त-विरत नहीं हो सका होगा। भले लोग भले ही एकजुटता के स्वप्न का ख़ाका खीचने में ही रह जायें किन्तु बुरे लोगों की एकजुटता का आलम ही कुछ और होता है। सच जितनी देर में दो क़दम बढता है, झूठ उतने वक़्त में सारे शहर का चक्कर लगा कर सरसराता हुआ आ धमकता है। युवाती तरुणाई की उम्र ही कुछ ऐसी होती है कि किसी भी प्रभाव को बेतरह आत्मस्थ कर लेना उसके लिये सामान्य-सी घटना होती है। प्रगतिवाद की पीठ पर चढे आते साहित्य के कुछ शातिर कीमियागीर अपने काइयांपन के कारण अदब की दुनिया को ही बदल के रख देना चाहते थे। इसका कुछ कारण तो यह था कि वैदेशिकता का स्वच्छन्दतावादी प्रभाव वास्तव में अब ही जाके सही मायने में स्वच्छन्द हो रहा था किन्त बहुत कुछ कारण अप्रातिभ और अयोग्य लोगों की वह स्वार्थान्ध साज़िश थी, जिसके तहत वे आने वाले वक़्त में साहित्यिक युगों के स्वघोषित स्वयम्भूय निर्माता होना चाहते थे। पहले की लकीर को छोटी करने के लिये बडी लकीर खींचने का गूदा तो इनमें था नहीं, हवा सटक जाती; तो यही सही। लगभग पचास सालों से ऐसी त्रासदी को भोगने का गवाह हुआ आ रहा है हिन्दी साहित्य, किन्तु भला हो ऐसे लोगों का, जिन्होंने वाचिक अथवा लिखित तौर पर जैसे-तैसे हिन्दी साहित्य के स्वर्णिम समय की सांसे सुरक्षित रखी हैं। डा० ब्रजेश कुमार मिश्र का नाम भी इनमें से एक होना चाहिए। ऐसे लोग न होते तो कविता का सही स्वरूप गया ही था काम से किन्तु हर बार सारी साज़िशें सभी तरह सफल हो सकें, ये किसी तरह आवश्यक नहीं। अभी कुछ वक़्त पहले तक जिस ज़िम्मेदारी को ब्रजराज पाण्डेय प्रभृति गीतकार निभा गये हैं, अब उसे अगली पीढी तक हस्तान्तरित करने का काम ब्रजेशजी की क़लम की नोंक का है। नैराश्य के एक-दो स्वरों की अगर नगण्य मानते हुए उपेक्षा कर दी जाये तो मैं हर तरह छायावाद के साथ स्वयं को खडा पाता हूं। आहा! क्या लालित्य, क्या परिकल्पन, क्या शब्द-चयन, क्या अपूर्व अङ्कन - सब शोभन-शोभन। एक लम्बा युग ऐसा बीत-सा चला है। छीछालेदर आज भी कम तो नहीं है किन्तु फिर भी राहत ये है कि टेक्नालोजी के दौर ने कविता को चहारदीवारी के दायरों में महदूद होने को मना कर दिया है और उसे खुले नीले आसमान तले ला खडा किया है। खुली हवा में सांस लेने से स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पडता ही है। डा० ब्रजेश कुमार मिश्र इसी खुली हवा के क़लमकार होकर भी छायावाद की छाया तले खडे अपने को अस्तित्व को गीताते पाते हैं। वर्तमान में वे छायावाद के वे एकमेव नहीं तो अन्यतम रचनाकार तो हैं ही। वे अपने पिता को पिता कहते लजाते नहीं। पुरातन में उनकी आस्था है और नव्यता में उनका अनुराग। वे उसी धारा और धरा के रचनाकार हैं, जिसने हिन्दी के आधुनिक युग को कञ्चन-कञ्चन कर दिया है, फिर भी छायावाद को मुर्दाबाद बताने वालों को क्या कहा जाये! पता नहीं होगा शायद उनको भी कि सारी भर्त्सनाएं जैसे भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य के इतिहास का स्वर्णकाल कहलाने से न रोक सकीं, वैसे ही छायावाद को हिन्दी साहित्य के इतिहास के आधुनिक काल का स्वर्णयुग होने से वञ्चित नहीं कर सकतीं। आप बेफ़िक़्र रहें ब्रजेशजी! डा० ब्रजेश कुमार मिश्र अति यथार्थ के उत्तर-आधुनिक चिलकते धूपकाल में छायावाद के अव्यय अश्वत्थ हैं। वे कलाचेतना में हृदय और मस्तिष्क - दोनों के सन्तुलन के प्रबल पक्षधर हैं। सन्तुलन के लिये विवेकवान होना आवश्यक है। पतली-सी रस्सी पर सुतवां शरीर वाली बालिका को झूलते देखना जनता के लिये जितना रोमाञ्चक है, उससे कहीं अधिक आवश्यक उस बालिका के लिये ये है कि कैसे सन्तुलन साधे रहा जाये! तनिक भी चूक हुई नहीं कि पेट की पुष्टि के लिये कलाकारी करती कन्या का काम तमाम हुआ समझो। भैंसानन्दन तो ये काम करने से रहे ही। फिर भी कुछ न कुछ और भी सन्तुलन के लिये आवश्यक है। इसके अभाव में तुलना कठिन तो होगा ही। तो क्या करे कोई कन्या! करेगी ये कि कोई लम्बा डण्डा तुलनदण्ड-सा लेकर चलेगी। देखा है न! यही दण्ड उसे सन्तुलन बनाये रखने में सहायक सिद्ध होता है। सन्तुलन बिगडा नहीं कि जीवन ख़त्म। बच भी रहे तो प्रायः लुञ्ज-पुञ्ज-पङ्गु। कविता की स्थिति भी ऐसी ही है। कविता है वह कन्या, जो रस्सी की तरह जन्म और मृत्यु के दो विपरीत बिन्दुओ के बीच तनी जीवन की दुर्वह डगर पर चलकर हमको हर हाल में रोमाञ्चक आनन्द प्रदान करती है। किन्तु इसके लिये आवश्यक यह है कि उसके पास भी तुलनदण्ड रहे। कविता का यह तुलनदण्ड है काव्यकार का विवेक, जिसका एक छोर है कथ्य और दूसरा है शिल्प। दोनो के सम होने से ही कविता की सुरक्षा सम्भव है। ऊंच-नीच हुई नहीं कि कविता का क़त्ल हुआ धरा। बडे-बडे विद्वान हैं किन्तु कविता करना उनके वश की बात नहीं। भावनाओ-विचारों, तथ्यों, सत्यों और कथ्यों की बडी से बडी पूंजी वाले भी शिल्प की संभाल के बिना कविता के पटल पर धराशायी हो गये। दूसरी ओर केशव जैसा काव्यकला का महान् शिल्पकार भी कथ्य की प्रातिभ प्रस्तुति के अभाव में उतना लोकप्रिय न हो सका, जितना अभीप्सित था। कहना इतना भर कि अनुभूति की अभिव्यक्ति कविता तभी बन पाती है, जब सन्तुलन सधे, अन्यथा की स्थिति में अभिव्यक्ति कुछ भी होकर रह जाये, कविता नहीं रह पाती और जब वह कविता ही नहीं तो उसके होने न होने का कुछ मतलब नहीं। बुद्धि की गर्दन पर विवेक के पञ्जे का रहना अनिवार्य है। ज्ञान के व्यवहार पर विवेक की आंख का अङ्कुश आवश्यक है। कवि होना है तो विवेकवान होना ही होगा। छायावाद के बाद प्रगतिवाद तक तब भी कुछ ग़नीमत रही, किन्तु प्रयोगवाद आते न आते प्रायः हर वही व्यक्ति कवि होने की कोशिश में लगा, जो किसी भी सूरत कवि नहीं होना था। राम तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है के केंचुल-विरोध में कोई कवि बन जाय, सहज सम्भाव्य है - अपवाद तो ख़ैर हर जगह होते हैं किन्तु सार्थक अपवाद अपने समय की विसङ्गतियों को, विद्रूपताओ को, विडम्बनाओ को सर कर सकें, ऐसा सदैव सम्भव नहीं। ऐसे में भला हो उन कुछ रचनाकारों का, जिन्होंने अपनी गीतात्मकता के सहारे कविता को ज़िन्दा रखा। राष्ट्रीय-सांस्कृतिक काव्यधारा के काव्यकार और छायावाद की कोख से उपजे ये गीतकार बहुत हद तक कवितावधू की डोली को कन्धों पर उठाये इस नगर से उस नगर भ्रमण कराते रहे। हरिवंशराय बच्चन जैसे नाम इसी दौर की देन हैं। ब्रजेशजी पर बच्चनजी का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। ब्रजेशजी की काव्यकला का अनुशीलन ध्यान से किया जाये तो यह सच-सा सामने आता है कि वे छायावाद के प्रवाह और प्रभाव में आकण्ठ निमज्जित रहे हैं किन्तु छायावादोत्तर समर्थ गीति-हस्ताक्षरों की अभ्यर्थना की कान्ति उनके कर्तत्व में उद्भासित होती है। प्रसाद के कथ्यसौष्ठव का ओजस्व अगर उनके पास है, महादेवी की वेदना का करुणासागर अगर उनकी धरोहर है तो रमानाथ अवस्थी और बच्चन-प्रभृति गीति-चेताओ की शिल्पकान्ति उनके रचनात्व का वैशिष्ट्य है। और यही वैशिष्ट्य उन्हें अपने समकालीन कवियों से अलगाता है और विशिष्ट पहचान प्रदान करता है। हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग में भाव-गह्वरता छायावाद की सबसे बडी सिद्धि होकर उभरी किन्तु वैचारिक उच्चता का आकाश-विस्तार नापने वाले हंसों को कितना उडना पडा है, ये वही जानते हैं। छायावादी कविताएं अनुभूतियों के स्पन्दनमान दस्तावेज हैं। जीवन अनुभूतियों का गीत है। प्रगीति छायावाद की विशिष्ट प्रस्तुति है। छायावाद के दौरान रची जाने वाली प्रगीतियों में मर्मस्पर्शी अनुभवों का साम्राज्य पसरा पडा है। छायावाद को कोसने वाले कभी ये जानने की कोशिश क्यों नहीं करते कि छायावाद के अस्तित्व का मूल क्या रहा होगा! कहते हैं कि अखण्ड मण्डलाकार समस्त संसार एक निराकार परमब्रह्म की छाया मात्र है। सचमुच, जीवन है ही क्या! छाया मात्र ही तो उस अविनाशी अजर-अमर नित्य सत्ता की। देखो, हम होते हैं तो उजाले में हमारा ही छाया-व्यक्तित्व भासित होता है। जब उजाला नहीं होता तो छाया भी भासित नहीं होती किन्तु हम होते हैं। इस उद्भावना और विवेचन की दृष्टि से छायावाद को मूल्यांकित करने की आध्यात्मिक और ईमानदार चेष्टा क्या कभी हुई? एक अलग गवेषणा-ग्रन्थ का विषय है यह, किन्तु यहां इतना भर कहना पर्याप्त होना चाहिए कि जैसे जीवन एक उस परम प्राकृतिक प्रभा की प्रकृत प्रस्तुति है, वैसे ही ये जीवन प्रकृति की अनुकृति है : कहीं चढाव, कहीं उतार, कहीं दुख, कहीं सुख, कहीं ग्रीष्म, कहीं शरद, कहीं बारिश, कहीं वसन्त, कहीं पठार, कहीं पहाड, कहीं ज्वाला, कहीं जल। गीत की आकृति और संस्कृति भी तो कुछ ऐसी ही है। इंसानियत की अनुभूति और भगवत्-सत्ता की अनुगूंज छायावादी काव्य की मूल चेतना है। छायावादी गीत काव्यधर्म के जीवन्त शिलालेख हैं। गीत सुनने में जितना स्पृहणीय और सरल है, रचने-लिखने और प्रस्तुति में उतना ही कठिन, निर्वाह करने में तो कठिनतम। गीत की गरिमा की संभाल सबके वश की बात नहीं। कविता करना ललितकलाओ में रचनात्मकता का शीर्षचरण है किन्तु कविताओ में भी गीत-प्रणयन कवि की अन्यतम उपलब्धि। कविता की अन्य विधाएं भी अपनी-अपनी तरह अन्यतम और अद्भुत हैं किन्तु गीत तो विशुद्ध दैवी वरदान है : कब आसमान से उतरने-झरने लगे, कहा नहीं जा सकता। छायावादी कवियों ने गीत को जितना समृद्ध किया, वह अद्रष्टपूर्व-अभूतपूर्व रहा। विश्व की समस्त समर्थ भाषाओ एवं प्रत्येक भारतीय आर्यभाषा-काल में गीति-सङ्केत उपलब्ध हो सकते हैं किन्तु जिस तौर हिन्दी में छायावाद प्रगीति-प्रचेताओ का अभयारण्य रहा, वह अन्यत्र असम्भव-सा है। ऐसा नहीं है कि छायावाद के बाद गीति का पथ समाप्त हो गया, सच तो यह है कि वह यहीं से सही तरह शुरू हुआ किन्तु आने वाले वक़्त में गीतिधारा गीतनद से गाने के बाने-बहाने बनाने लगी और यहीं से वह रीतिकालीन नालियों की परिणति को प्राप्त हो चली। आज मञ्चों पर कई नामचीन गीतकार ऐसे हैं कि उनके गीत गलेबाज़ी के अलावा कुछ नहीं। स्तरहीन प्रस्तुतियों और सस्ती अदाओ की आदी होती जाती सामान्य जनता में उनका सिक्का ख़ूब चलता है : नाम और नामा - दोनों में इज़ाफ़ा हो रहा है। गायन के दौरान उनकी विदूषकीय मुख-मुद्राएं देखकर जनता जनार्दन का भरपूर मनोरञ्जन हो रहा है किन्तु एक समझदार काव्यमर्मज्ञ रसिक और तटस्थ सुधी समीक्षक को मनोरञ्जन से ज़्यादा वितृष्णा होती है। तथाकथित गीतकाराओ की कुछ कहो ही मत! उनके गीतों से अधिक उनकी अङ्ग-भंगिमाएं, उनकी शारीरिक चेष्टाएं लौंडों को लूट रही हैं। बतौर उपहार प्राप्त लिसलिसी रति-काम-कविताएं उन्हें काव्यवधुएं बनाये रखने के लिये पर्याप्त हैं। डा०मिश्र इस तरह के दौर से अगर आज भी अनभिज्ञ हैं तो इसके पीछे एकमेव यही तथ्य है कि वे छायावाद के न केवल साहित्यिक प्रस्तोता रहे हैं प्रत्युत उनका आचारमान् चरित्रचित्र इसी छायावाद के आध्यात्मिक ताने-बाने से बुना-बना है। जीवनगत हर स्थायी भाव उनके काव्यजगत की भाव-सम्पदा है, जिसकी वे हर तरह संरक्षा-सुरक्षा और सम्पुष्टि सुनिश्चित रखना अपनी आदमियत का उद्देश्य मानते हैं।
डा० ब्रजेशकुमार मिश्र गीत-पुङ्गव कवि हैं। उनके गीत आचारशास्त्र की युगसम्भव धरोहर हैं। लैला तेरी ले लेगी तू लिख के ले-ले जैसे जुगाड-आइटम कुछ भी ले-लेने की शर्त पर भी वे नहीं लिख सकते। लिख वे इसलिये नहीं सकते कि उनके भीतर ऐसा लिखने का माद्दा नहीं है, लिख वे इसलिये नहीं सकते कि वे ऐसा लिखना नहीं चाहते। संस्कार उनकी कविताओ का मूल है और प्रेमप्रवण पीर उनके काव्यकलश का आंवा। चेतना की चाक पर चढी उनकी कविता तो विशुद्ध प्रेम है और प्रेम का पन्थ परीक्षा का है : खांडे की धार पर चलने का - यहु प्रेम का पन्थ कराल महा तलवार की धार पै धावनो है। डा० ब्रजेशकुमार मिश्र को इस बात से कोई वास्ता नहीं कि कोई उनको समकालीन सन्दर्भों में समझदार समझ रहा है या नहीं। उनको समझदार होने से ज़्यादा ईमानदार रहने की चिन्ता है। खुद को कवि घोषित करवाने के लिये आन्दोलन के नाम पर अकविता के पैरोकारों से उनकी कभी नहीं निभी। प्रेम करना सरल है किन्तु निभाना कठिन। उनके गीत इस सत्य की क़लमबन्द गवाही हैं। वे इसीलिये गरलपान करते आजीवन सरल-तरल होते गये हैं। सरल तो वे इस सीमा तक हैं कि वे अपनी कठिनाई में भी सरल हैं। सरल होकर कठिन रहना उन्हें मालूम है किन्तु सरल दिखकर भी कठिन होने वालों से उन्हें गुरेज है। डा० मिश्र नाहक पारम्परिकता से बंधे रहकर भी और समकालीनता के शोर-शराबे से बचे रहकर भी आज जहां जो कुछ रच रहे हैं, ये उनकी अपनी अदम्य साहस, अद्वितीय कुव्वत और ईमानदार कोशिश का परिणाम है। अतीत की स्मृतियों को जीते हुए भी आज का माहौल उनकी सृजनात्मकता में बंधा हुआ है। वर्तमान के सम्मान के साथ-साथ अतीत का ज्ञान और भविष्य का ध्यान रखना आवश्यक है। वे यादों की हथेली पर अपने समय का सच सामने रख रहे हैं। वे साहित्य में जीवन-साम्य के हामी हैं किन्तु कश्मकश कभी ख़त्म हुई है क्या! यही कश्मकश, यही उद्वेलन डा० मिश्र के गीतों का स्पन्दन है। एक स्पन्दन ही हमारे ज़िन्दा होने की गवाही है। दुनिया का सबसे सुन्दर बिम्ब अगर कोई है, तो वो बिम्ब है जीवन का। जीवन से सुन्दर कुछ नहीं। जीवन है, तो सब कुछ है। व्यक्ति इसीलिये जीवन का क्षरण किसी भी अन्य लाभ पर पसन्द नहीं करता। अपनी सांसें उसे सबसे अधिक मूल्यवान हैं। सांसों की सरगम उसे सबसे प्यारी है। सांसों की सरगम ही इस दुनिया के सङ्गीत की एकमेव सच्ची प्रतिनिधि है। श्वासों का उतार-चढाव ही ज़िन्दगी का मूलभूत गीत है, जिसे हर कोई अन्तिम पल तक क्या, सदा-सदा को गुनगुनाना चाहता है। लेकिन इसे गुनगुनाना आना चाहिए। प्रेम इस कला को सिखाता है। डा० मिश्र प्रेम के प्रतिमान हैं। प्रेम उनको सुहाता है, प्रेम उनको भाता है, उनका मन प्रेम ही गाता है, दुनिया से उनका प्रेम का ही नाता है। प्रेम ही उनके मरम का परम चरम है परन्तु नये दौर के प्रेममानकों पर ऐसा मानने-करने-कहने वाला शायद ही खरा उतरे! ये डिस्पोजली दौर है। भिगोया, धोया और हो गया का पेंच जब प्रेम में फंस जाये तो प्रेम दीर्घजीवी कैसे हो सकेगा। उन्मुक्त-प्रसङ्ग दैहिक दौर में आत्मनियन्त्रण की दरकार कहां! वहां तो कहीं भी कुछ भी के लिये तैयार घूमने वाले लोग हैं। डेट के दौर के लोग मिश्रजी के इन गीतों को आउटडेट ज़रूर कह सकते हैं किन्तु प्रीति की मीरा कहे न कहे किन्तु हीरा तो हीरा है सदा के लिये। लेकिन प्रेम अगर इतना ही बेवकूफ़ी का काम होता तो देहधर्म की गर्मी से न जाने कितने क़ुनबे और साम्राज्य यूं ही भस्मीभूत होते रहते। नफ़रत बुरी बताओगे और प्रेम को बेवकूफ़ी का फ़तवा सुनाओगे, यह कैसी समझदारी! व्यष्टिगत प्रेम को खिलने-खुलने तो दो, समष्टि अपने आप रूपायित होने लगेगी सा'ब! मिश्रजी प्रीतिम पारदर्शिता के पक्षपाती हैं, इसीलिये ढेर सारे एकाङ्गी आलोचकों को उनके गीतों में व्यावहारिक आधुनिकता नहीं, व्यवहार्य पुरातनता दीखती है। कोई बात नहीं, यह पुरातनता बोल्ड भले ही न हो किन्तु ओल्ड को गोल्ड होने से नकारा तो नहीं जा सकता पेज-खराबकराऊ कविताकारों। छायावादी कविता की रेखाङ्कनीय उल्लेख्य उपलब्धि उसकी बिम्बात्मकता है। उसका सबसे बडा शिनाख़्ती निशान है उसका बिम्ब-बनान। डा०मिश्र का प्रायः सारा साहित्य छायावादी पद्धति से अनुप्राणित है। इस दृष्टि से उनका काव्य भी अपने बिम्ब-विधान में लासानी है। एक बात मिश्रजी के बिम्ब-विधान को बल और देती है और वह है मिश्रजी का समर्थ छायाकार होना। फोटोग्राफी में मिश्रजी के जौहर को जिसने देख रखा है, वह जान सकता है कि छायावादी काव्य के इस समकालीन पुरोधा की कविताओ पर इसके अन्दर छिपे छायाकार की छवि कैसे पडी है। सांझ ढलने का बिम्ब हो या सूरज उगने का, आषाढ के एक दिन का छायाङ्कन हो या शरद का रेखाङ्कन, पक्षियों का किलोल-कलरव हो या नदी बहने की कल-कल, साहित्य के सफ़्ओ पर शब्दों के सहारे मिश्रजी उसे ऐसा उरेह ले गये हैं कि दिल खिल-खिल जाता है। हर कोई उसी दृष्य को देखता है किन्तु कैमरामैन के देखने का नज़रिया उसी दृष्य को कुछ का कुछ करके पेश कर देता है। मिश्रजी भी बिम्ब-विधान के ऐसे अद्रष्ट एङ्गल तलाशते रहे हैं कि उनका सृजन अनुपमेय उपमान हो सके। उनके दर्शन, उनके सर्जन, उनके चिन्तन और उनके जीवन को अनूठापन और आकर्षण प्रदान किया है उनकी सुघड-सुभग अभिवृत्तियों के स्पन्दन और आलोडन ने। आपरेशन की टेबल पर नैरोग्य की पुडिया बांधने वाले हाथों की उंगलियों में अगर बाग़वानी के हुनर का सौरभ महकता हो तो समझ लेना कि लहू का कोई क़तरा ज़ाया नहीं जाने वाला। अपनों का ख़ून बहाने वालों के लिये ब्रजेशजी की कविताएं चिन्तनाएं भी हैं और चेतावनियां भी। उनका स्पष्ट अभिमत है कि जो मानव का नहीं हो सकता, वह मानवता का कैसे हो सकता है और जो मानवता का नहीं वह मानव कहलाने और होने का अधिकारी भी नहीं? मानव वही हो सकता है, जिसके अन्तस में मानव ही नहीं, प्राणिमात्र के प्रति अपनत्व का अजस्र स्रोत प्रवाहित हो रहा हो। वे सर्जन और सर्जक साथ-साथ हैं। पशु-पक्षियों और पेड-पौधों के प्रति अगाध नेहप्रपूरित ब्रजेशजी के व्यक्तित्व के रग-रेशे और पेशे का जीवनमान है - नर-सेवा नारायण-सेवा। वे वेटरिनरी डाक्टर होना चिकित्सकीय पेशे का ईश्वरीय वरदान मानते हैं। सामान्यतः मनुष्य तो अपनी वेदना व्यक्त कर देता है किन्तु इंसानी वाणी से रहित पशु-पक्षी अपनी पीडा किससे और कैसे कहें! ऐसी सोच रखने वाले ब्रजेशजी सचमुच में ब्रजेश ही हैं। ब्रजराज कृष्ण ने जिस प्रकार प्रेम की बांसुरी का सुर उर-उर में भर कर कहा था कि बांस से बांसुरी का कार्य कराना ही सर्वोत्तम है, नहीं तो बंसौखे का काम लेना अन्तिम चारा है, उसी प्रकार ब्रजेशजी की कविताओ का मृदूद्घोष भी यही उचार रहा है कि समय रहते अपने व्यक्ति और व्यक्तित्व को विश्लेषित-विवेचित और व्याख्यायित करते हुए अङ्गीकृत और आत्मार्पित कर लो नहीं तो कल को कतई कहना मत कि देर हो गयी। पेड एक बार को सूख गया तो दुबारा हरियाना नामुमकिन ही है। अन्तस का रस सूख जाना ब्रजरज को हरियाणा कर देना है। जीवन के रस का स्रोत सूखने से बचाये रखने के लिये कलाओ, कथाओ और कविताओ की छाया आवश्यक है। डा०मिश्र रसवादी रचनाकार हैं। जो सरस नहीं, वो नीरस है और नीरसता निष्प्राणता की पहचान है। विरसता का वायरस उन्हें नहीं व्यापता क्योंकि रसौ वै सः और रसात्मकं वाक्यं काव्यम् उनके सर्जन का मूलमन्त्र है। उनकी आस्वादन-क्षमता छ्ह तरह के रसों से लेकर ग्यारह तरह के रसों तक के आस्वादन में सहज समर्थ है। रससिद्ध इस प्रसिद्ध रचनाकार का कर्तत्व उसके व्यक्तित्व का प्रतिफलन इसीलिये हो सका है कि उन्होंने जीवन का रसोत्स सूखने नहीं दिया है। रस के उत्स को सूखने से बचाये रखना ही जीवनसाधना की सिद्धि है जिसे ब्रजेशजी पूरी निष्ठा से निभा गये हैं। हर आहट पर आशंकित धडकनों के इस बेतरह धुंधुआते दौर में आओ, हम भी अपनों के मनों का नीला आकाश मानुषिकता के तक़ाज़ों से बदलाने चलें.. अनुभूतियाँ 2015) डॉ. ब्रजेशकुमार मिश्र / नीहारिकाञ्जलि प्रकाशन कानपुर / मूल्य ₹250/- सजिल्द ISBN : 978-93-82972-10-5

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