नीच नीतियां करेंगी उच्च शिक्षा का कल्याण...
चलो, कहीं तो संज्ञान लिया जा रहा है हमारा। 'गेटिङ्ग इण्डिया बैक आन ट्रैक : एन एक्शन एजेण्डा फ़ार रिफ़ार्म' नामक पुस्तक के विमोचन के मौक़े पर मोदीजी उवाचे हैं कि भारत को यदि चीन से प्रतिस्पर्धा करनी है तो उसे स्किल, स्केल और स्पीड पर ध्यान देना होगा। जहां तक स्किल की बात है तो युवा पीढी के स्किल डेवलपमेण्ट पर जोर देना होगा। खासकर अध्यापन, नर्सिंग और अर्द्धचिकित्सकीय स्टाफ़ पर। भारत की पैंसठ फ़ीसदी आबादी पैंतीस साल से कम आयु की है। देश को युवा आबादी का लाभ उठाना ही चाहिए। समाज में अच्छे अध्यापकों की अत्यधिक आवश्यकता है लेकिन ऐसे अध्यापक बहुत कम हैं। भारत ऐसे अध्यापकों का निर्यातक बन कर दुनिया भर के लोगों का ध्यान खींच सकता है, क्योंकि भारत के पास शिक्षित युवाओ और अनुभवी शिक्षकों का एक बडा समूह है।
मैंने यह बात कुछ दिन पूर्व उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आये राज्य सरकार के एक जीओ के सम्बन्ध में कही थी। इस आदेश के अनुपालन में रिटायर्ड टीचरों को पच्चीस हजार रुपये मानदेय पर संविदा के क्रम में सत्तर साल की आयु तक पुनः एडेड महाविद्यालयों में रखा जाना है। तर्क दिया जा रहा है उच्च शिक्षा संवर्धन का और रोना है प्राध्यापकों की कमी का। कहा जा रहा है कि पुराने टीचर आयेंगे तो पढने वालों को उनके अनुभवों का लाभ मिलेगा। दूसरे इस क़दम से शिक्षकों की कमी पूरी हो जायेगी। बरेली कालेज, बरेली से बाक़ायदा इस मुद्दे पर आवाज उठी है। सरकार का पहला तर्क तो तभी धराशायी हो जाता है जब उच्च शिक्षाशाहों की वरिष्ठतम पांति में शुमार प्रो० आर०पी० सिंह कहते हैं कि इस आदेश को फाडकर फेंक देना चाहिए क्योंकि आम तौर पर जिन लोगों ने जिन्दगी भर नहीं पढाया, वे अब क्या पढायेंगे! और अगर पढाते ही होते तो क्या उच्च शिक्षा इस स्तर और गति को प्राप्त हुई होती! बात में दम है। सब तो नहीं, हां! अधिसङ्ख्य अध्यापक ऐसे हैं जिनको कभी कालेज आने की फ़ुर्सत ही नहीं रही है। मैं एम०बी० कालेज में पढ रहा था जिस वर्ष, उस वर्ष एक छात्र ने जीवविज्ञान के उन अध्यापक, जो प्रायः ही नहीं आते थे, को कालेज में आने-पाने पर खिडकियों से खडखडा-खडखडाकर खडा करने का बडा उद्यम किया था। मेरी कक्षा में मेरे कक्षाध्यापक हाजिरी ले रहे थे। वे भी जीवविज्ञान के ही टीचर थे। कोई भी कुट रहे जीवविज्ञानीजी को बचा पाने की हिम्मत नहीं कर सका और छात्र अपना काम करके ये जा, वो जा। एक-दो दिन बाद मैंने वहां के क्रीडाप्रभारी और प्राक्टर से, जो रिश्ते में मेरे बहनोई भी लगते थे, घर आने पर अनौपचारिकतः इस घटना का सबब पूछ बैठा तो उन्होंने बडी वेदना से बताया कि शिष्यों के सरोज खिलाने वाले उन जीवविज्ञानीजी के पास इतना टाइम कहां है कि कालेज आ कर स्टुडेण्ट को एण्टरटेन कर पायें। कोचिङ्ग का काम ही इतने धडल्ले से फैल गया है कि वहीं पूरा टाइम दे पाने में मुश्किल पेश आ रही है। उस समय मैंने अपने बहनोई कम प्राक्टर से किशोरसुलभ आक्रोश और आवेश में कहा था कि कालेज क्या कोई खैराती जगह है जहां के लिये समय निकालना भर उनकी कृपा पर निर्भर है और कोचिङ्ग क्या कोई सरकारी संस्थान या ऐसा अहम उपक्रम है, जहां किसी क़ीमत पर नागा नहीं किया जा सकता!
डा० सिंह के बयान में इस बात की पीडा भी जोर मारती रही है। हम इस पक्ष को नकारने या इससे आंख मूंदने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि ऐसी घटनाएं व्यक्तिशः और मीडिया के स्तर पर आम होती रही हैं। ऐसा नहीं है कि व्यवहार-चरित्र और अकादमिकता में लग्ननिष्ठा वाले टीचर हैं ही नहीं! बरेली कालेज में पढने आने से पहले तक आम तौर पर मैं अशेष शिक्षक समुदाय से बेहद घृणा करता था। समस्त टीचर जाति के प्रति मैं ठीक वैसे ही भावों से भर जाया करता था, जैसे पेड काटते हुए किसी आदमी को देखकर मेरा मन गोली मार देने का करता है। संयोग यह है कि आज मैं भी प्राध्यापन से ही जुडा हूं। लेकिन इस संयोग के पीछे मेरे उन पूज्य शिक्षकों का हाथ है, जिन्होंने मुझे अपनी प्राध्यापन-शैली से प्राध्यापक बनने को स्वतःस्फूर्त ढङ्ग से प्रेरित किया। रही बात शिक्षकों की कमी की तो यह बात मार्केबल है। आज से बीस-पच्चीस-तीस साल पहले जितने छात्र थे, उनके अनुपात को ध्यान में रखते हुए शिक्षकों के जितने पद सृजित हुए आ रहे थे, उतने ही आज भी हैं, लेकिन छात्रसङ्ख्या पांच से दस गुना तक हो गयी है। अकेले बरेली कालेज में शिक्षक-छात्र का अनुपात कहीं-कहीं लगभग एक और तीन सौ का चल रहा बताया जाता है। सोचने की बात यह है कि यह गडबडी है कहां से? बकौल एक पूर्व प्राध्यापक - जब प्राध्यापकों की नियुक्ति की कमान प्रबन्धन से लेकर नवनिर्मित कमीशन को दे दी गयी तो यह अनुपात गडबडाने लगा। पहले प्रबन्धन कालेज की बेहतरी के लिये हर तरह जिम्मेदार था। उसकी पहली प्राथमिकता थी उत्कृष्ट शिक्षा, जिसके लिये यह जरूरी था कि शिक्षक उत्कृष्ट हों। प्रबन्ध तन्त्र के लोग नजर रखते थे कि कौन अच्छा नाम निकल रहा है। बस, नाममात्र की औपचारिकताओ के साथ अपने यहां ससम्मान बुला लेते थे। इसके लिये वे विभागाध्यक्षों और अन्य लोगों से भी खुले मन से सम्पर्क में रहते थे। दूसरी बात यह थी कि अगर ऐसा कोई नाम अपने संस्थान का ही है तो सोने पे सुहागा। वह तो वैसे ही अपनी कार्यसंस्कृति और व्यवस्था से वाक़िफ़ होता था। कुछ अतिरिक्त बताना-समझाना नहीं होता था। बडप्पन की एक सोच यह भी थी कि हमारा होनहार और जगह जाकर रोजगार के चक्कर में ठोकर क्योंकर खाये। तो उसे बडी सहजता-सरलता से सही समय से सेवा में आने का भी अवसर मिल जाता था। ऐसे में कुछ इधर-उधर भी करके आ गये, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता किन्तु अन्ततः तो उत्कृष्टता ही एक मात्र उद्देश्य था। अब यह हो गया है कि अर्निङ्ग सोर्स तो पैदा करे प्रबन्धन और मिशन कमीशन की व्यवस्था के चलते लुञ्ज-पुञ्ज और मनमानी नियुक्तियां करे कमीशन। प्रबन्धन इसी के चलते शिक्षण की गुणवत्ता के प्रति पराङ्गमुख होता गया। उसकी नजर और उठापटक आर्थिक पक्ष पर ही केन्द्रित होकर रह गयी और बस वही : जो हो रहा है, होने दो, हम अपना कपाल काहे को पिरवाएं, जब नियुक्तियां कमीशन को ही करनी हैं। कमीशन में ऐसी नियुक्तियां करने वालों की नियुक्तियां भी मिशन कमीशन के तहत होने लगीं। एक-एक पोस्ट लाखों-करोडों में नीलाम होने लगी तो देने वाला कमायेगा भी तो भाई! या वो यहां नाहक ही झख मारने को इतना गंवा के आयेगा! लूटना है तो फूंकना है। एक-दो आयोग-अध्यक्षों के यहां सीबीआई द्वारा बोरों में भर-भर कर रुपये बरामद करने के सीन सार्वजनिक हो ही चुके हैं। ये पैसे कहां से आये, जगजाहिर है। उच्च नागरिक सेवाएं तक इस मिशन कमीशन का शिकार हैं तो और कहां और किससे अपेक्षा की जाये? माफ़ करें, कुलपति और राज्यपाल तक की नियुक्तियां इस सन्देह से अछूती नहीं रहीं। ऐसे में उच्च शिक्षा की बेहतरी की उम्मीद कैसे की जा सकती है!
बावजूद इसके उच्च शिक्षा के उन्नयन के क्षेत्र में हर मर्ज की दवा रिटायर्ड टीचरों की नियुक्ति ही है, यह किसी क़ीमत पर नहीं माना जा सकता। सरकार का यह क़दम जादू की छडी साबित होगा, यह शुतुर्मुर्गी समाधान और शेखचिल्लियाना सोच है। न जाने कितने पीएचडी-नेट-जेआरएफ़ खलिहर बैठे हैं, न जाने कितनी-कितनी कार्यशालाएं-सङ्गोष्ठियां किये हुए। और अगर मानक मनवाने ही हैं, तो भाई, पुरानी पीढी इसके लिये दोषी नहीं ठहरा पाओगे। उनके समय में तो पीजी पढाने की अर्हता-योग्यता पीजी ही होती थी। न अपडेटेशन की झाड, न एपीआई स्कोर की दुम। मोदीजी के कहने से हमारी बात को बल भले मिलता हो लेकिन पहले से ही न जाने कितने उत्साह से लबरेज उच्च शिक्षित युवा नाम नीतियों की विपरीतता और अवसरों के अभाव में शोषण कराने को विवश हैं। कुछ तो दम ही तोड गये बिलख-बिलख कर। विश्वविद्यालय और सरकारजी! जो कल के पैदे पूरी तरह प्राइवेट कालेज हैं, उनमें ऐसे कौन से सुर्खाब के पर लगे दीख गये आपको कि वहां के और अन्य स्ववित्तपोषित पाठ्यक्रमों के असिस्टेण्ट और एसोसिएट पदनामों पर आपकी मेहर हो गयी और आपने उन पर मोहर लगा दी या आपने उन्हें वर्गभेद का मोहरा बनाने की ठान ली है! जिन्हें पारम्परिक पाठ्यक्रमों और मुख्य विषयों में पन्द्रह-पन्द्रह साल से पढाते पा रहा हूं, वे आज भी कापी जांचने, पेपर सेट करने और पर्याप्त पारिश्रमिक पाने से महरूम हैं! हर साल हल्ला मचता है कि मूल्याङ्ककों के अभाव में कापी समय से न जंच पाने से रिजल्ट विलम्ब से आता है, वह भी बहुत बार आपत्तिकारक। पेपर आउट आफ़ सलेबस, चेकिङ्ग गडबड, ये गलत, वो गलत। आप क्यों नहीं देते ये काम उन अस्थायी शिक्षकों को, जो बरसों से शिक्षण का काम पूरी निष्ठा और लगन से करते आ रहे हैं। आप क्यों नहीं करते उन्हें स्थायी? आप क्यों नहीं करते समय-समय पर स्थायी नियुक्तियां? क्यों करते हो बरसों-बरस बाद विज्ञापनों के नाम पर खेल! दो-दो, तीन-तीन, चार-चार हजार रुपये लेकर फ़ार्म भरवाना, प्रतीक्षा करवाना और बाद में सब रद्द! फिर वही विज्ञापन, फिर वही आवेदन, फिर वही खिटखिटखाना और फिर पैसा हजम। अगर कुछ अरीक्षा-परीक्षा हुई भी, इण्टरव्यू जुगडा भी तो बैठ गये रिजल्ट तशरीफ़ तले दबा के। सरकार पांच साल में जरूर बन जाये, चुनाव समय भीतर अवश्य हो जायें, उसके बिना सब अटका है किन्तु और सब रामभरोसे! सारा कुछ टेम्परेरी! यद्यपि हो ही रहा है किन्तु थोडे दिन बाद प्रत्यक्ष तौर पर ये भी करना कि ठेके पर शासन, संविदा पर सरकार! प्रदेश सरकार प्राइवेट लिमिटेड, भारत सरकार प्राइवेट अनलिमिटेड। ठीक है न! और अगर नहीं तो हर व्यवस्था जल्दी ठीक करो, नहीं तो धज्जियां बिखरते देर नहीं लगनी। ताबूत में एक कील यह भी होगी।
@ Dr. Rahul Awasthi
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