Friday, 26 January 2018
Thursday, 25 January 2018
कानाबाती के शब्दोत्सव में गीताञ्जलि
कविता रस की साधना है। रसौ वै सः। यह रस क्या है - रस्यते इति रसः। रस बड़ा व्यापक शब्द है और इसका गुणधर्म अनगिन गुना व्यापक। समस्त सृष्टि इसी से वर्तित और वर्धित है - नहि रसादृते हि कश्चिदर्थ प्रवर्तते। भोजन-भजन इंसान के लिये अनन्य भी है और अत्यन्त आवश्यक भी। भोजन में तो षडरस की बात बहुत सामान्य-सी है - खट्टा, मीठा, कड़वा, बखठैन्धा, कसैला और तीखा किन्तु कविता में यह कहाँ से आता है! भरतमुनि नाट्यशास्त्र में कहते हैं - विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः। रस नहीं तो कविता किस काम की! रास, रासो, रासक जैसे प्रयोग सब रस से ही अनुप्राणित हैं। रस से ही तो आनन्द है। ज़रा-सी रसदार पंक्ति कोई बोल दे तो लोग कह उठते हैं - तुम तो कविता करने लगे! साहित्यदर्पण सम्भवतः इसीलिये बताता है - रसात्मकं वाक्यं काव्यम्। मनुष्य का मन सहजतः रसग्राही है। वह कैसे न कैसे रस में ही रमता है। जगन्नाथ ने अन्ततः इसी निमित्त रस गङ्गाधर में कहा - रमणीयार्थकः प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्।
काव्य का ललित कलाओं में उच्चतम स्थान है। दुनिया में अनेकानेक कलाएँ हैं। ललित कलाओं का उनमें शीर्ष स्थान है और यह मूलतः पाँच हैं - स्थापत्य, भास्कर्य, चित्र, सङ्गीत और काव्य। इन पाँचों कलाओं में स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर चरण संचरण करते हुए हम जब आगे आते हैं तो काव्य आख़िर में मिलता है। काव्य कला है। साहित्य सङ्गीत कला विहीनः / साक्षात् पशु पुच्छ-विषाणहीनः का मनमाना अन्वय किया जा सकता है। साहित्य सङ्गीत और कला के बीच में संयोजक चिह्न लगाकर उसे विहीनः के साथ पढ़ा जाये तो साहित्य कला के पक्ष में जा पड़ता है और इनके बीच अल्पविराम का प्रयोग करके विहीनः के साथ पढ़ा जाये तो साहित्य की स्वतन्त्र सत्ता स्थापित मिलती है और वह कला से इतर हो पड़ता है। हम साहित्य अथवा काव्य को कला के अन्तर्गत अगर रखें तो यह सकल कलाओं की कामधेनु से जगत्-प्राप्त पदार्थों में दुग्धवत है और गीत इसी दुग्ध से प्राप्त उत्पादों में नवनीतवत्। सुश्री गीता सक्सेना गीतांजलि इस दृष्टि से विशिष्ट रसवादी गीतकार हैं।
गीत कविता की शिखरसाधना है और कविता करना वाग्देवी का अहैतुक वरदान है। कविता कवयता को शारद वैभव प्रदान करती है। यह वैभव ज़िन्दगी के साथ ही नहीं, ज़िन्दगी के बाद भी काव्यकार को दीप्तिमान रखता है। कविता कवयता का आत्मप्रकाशन है। कविता कवयता की अनुभूति की अभिव्यक्ति है और यही अभिव्यक्ति उसे जीवनपर्यन्त ही नहीं, अपितु जीवनोत्तर भी मुखर रखती है। किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि अनुभूत जो कह दिया, साहित्य हो गया। नहीं भाई! इसके लिए स्वयं को सूप करना होता है -- सार-सार को गहि रहे। ख़ुद को टकसाली बनाना होता है और इसके लिये आवश्यक है नैष्ठिक और उद्दाम सार्जनिक ईमानदारी। बकौल गीतपुरुष यशोशेष रामावतार त्यागी -- कोश में होते हज़ारों शब्द लेकिन / कोश को कविता कहा जाता नहीं है/ काव्य उस अनुभूति का संयत प्रकाशन / बिन कहे जिसको रहा जाता नहीं है। गीतांजलिजी के गीत व्यक्ति की इसी अभिव्यक्ति-विवशता के प्रतीक हैं।
कविता अनन्य अनुभूति की अतर्क्य अभिव्यक्ति है किन्तु इसका बरबस किसी से कुछ लेना-देना नहीं - न नौ नक़द न तेरह उधार। ये तो "स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा" है। काव्यप्रयोजन अवश्य प्रायः छः मान लिये गये - काव्ये यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये / सद्यः परिनिर्वृत्तये कान्तासम्मितोपदेशयुजे; किन्तु आधारभूत तथ्य तो केवल अभिव्यक्त हो जाना भर है। संस्कृतकाल में कविता और कवयता सम्मान्य और पूज्य रहे। उत्तरसंस्कृत काल में स्थितियाँ पूर्ववर्ती न रहीं। परवर्ती हिन्दीयुग में भी कविताई सामान्यतः आराधना-साधना और सेवा का साधन ही होकर रही। आदिकाल से कहीं अधिक यह सन्दर्भ भक्तिकाल में चरम पर पहुँच गया किन्तु रीतिकाल-आते कवयताओं ने अपनी हैसियत निर्मित की। वे काव्यकर्म के उपाध्याय होने लगे। यहाँ साहित्य में ब्राण्डिंग के सूत्रपात की सम्भावनाएँ निकलने की राह टटोही जा सकती है। आधुनिक काल आते-आते और उसके ठीक से सठियाते-सठियाते कविता का बाज़ार जुड़ने लगा और प्रबन्धबुद्धि कवि कविता की विविधविध उपलब्धि गँठियाने चल निकले।
कविता आज की तारीख़ में कमाई का एक बड़ा माध्यम है और सही तरह कहा जाये तो बहुत तरह कविता के नाम पर खड़ी हुई अकविता की इण्डस्ट्री, जहाँ सबसे ज़्यादा मज़े तथाकथित कवयित्रियों और कवियों के हैं : नो इनपुट, फुलमफुल ऑउटपुट। ज़रा-से रिचार्ज पर पूरे-पूरे वर्ष का टॉकटाइम और वो इसलिये कि इनका टाइम ठीक चल रहा है वर्ना सही और स्तरीय श्रोता कहीं आ जायें तो हाथ नहीं, कॉलर पकड़ कर ऐसों को स्टेज से नीचे उतार दें। फूहड़ हास्य की बड़ी डिमाण्ड है आजकल और उसी का लाभ भाँडवत् अकवि विदूषक उठा रहे हैं। वीररस के नाम पर भड़काऊ भाषण टाइप बड़ी फॉर्मल और फ़ार्मूला प्रस्तुतियाँ चल रही हैं और श्रृंगार के बाज़ार में सिसकारियों का साम्राज्य है। बेदिल गलेबाज़ लोग लिखी-लिखाई और रटी-रटाई गीत टाइप टुकड़ियों से रोटी का जुगाड़ कर रहे हैं। रही कवयित्रियों की बात तो बस! लला कुच्छु पूछौ मती! नगाड़े की ठोंक पर ठुमका लगाते हुए कामुक लचक के साथ शुक़्रिया अदा करती हूँ कहने भर को बाक़ी है बस!
इन कुमारियों, सुश्रियों और श्रीमतियों की मति ही मारी गयी लगती है। सुना है कि कई एक तो इनमें से इन तीनों सम्बोधनों से अपने घर और उम्र का फैक्टर बचाने के चक्कर में डेढ़-डेढ़ सौ वाली डॉक्टरेट की डिग्री जुगाड़ के डॉक्टर हो गयी हैं। कुमारी, सुश्री, श्रीमती सब साफ़। पर ध्यान रहे! तथाकथित कवयित्रियाँ हैं ये ज़्यादातर - शायरी की आसुरी सुरसाएँ; स्त्री स्वातन्त्र्य के सुलगते समय में अपनी शौक़ीन ज़रूरतों के हाथों बिकी हुई अभिशप्त शब्द अप्सराएँ; मञ्चों पर मँडराती मठाधीशी प्रेतच्छायाओं-तले गुटरुंगुँआँती कबूतरियाँ। आयोजकों के आयोजन की मुखशोभाएँ ये स्त्रियाँ अन्तःपुरों का इस्तेमाल बख़ूबी जानती हैं। क्यों? क्योंकि कइयों की स्थिति तो यह है कि स्टेज पर औरत के होने भर से ही उनके कलेजे को ठण्डक पड़ जाती है, रूह को राहत मिल जाती है और रास्ते के नाश्ते का प्रबन्ध हो जाता है। कई संयोजक कवियों को तो कवयित्रियों के कमरे में कपड़े बदल लेने भर से ही आराम आ जाता है। इनका भविष्य इनकी उपयोगिता निकले तक, इनका यौवन-ढले तक तब तक संयोजकों के हाथों सुरक्षित रहता है, जब तक कोई और भेड़ भेड़िये के हत्थे नहीं चढ़ जाती। फिर भी काम धकापेल चल रहा है।
कविता का किसान आत्महत्या करने को अभिशप्त है और उसके आढ़ती-दलाल आलीशान ज़िन्दगी जिये नहीं अघा रहे। न जाने कितने ऐसे लायक, असली नायक नाम हैं, जिनको दाम की ज़रूरत भर काम नहीं या काम मिलने नहीं दिया जाता। का। मिल गया तो कही ऐसा न हो कि ये आगे निकल जायें और नकलची टापते रह जायें। सो बिछा दी गयी हैं बिसातें - निकलने ही मत दो नकलचियों के आगे असलों को। प्रचण्ड प्रातिभ नाम प्रायः योग्यता-अर्जन पर ध्यान कम ही देते हैं। ये भी एक प्रकार की फ़क़ीरी है। फ़क़ीरी रणनीति नहीं बनाती। साधुता और सरलता स्ट्रेटेजियों पर नहीं जीती, ऐसे में बेबसी उसे बिकने पर मजबूर कर देती है। पर फिर वही सादगी आड़े आती है। वह ठीक तरह बिकना भी नहीं जानता। ख़ुद को बेचने का हुनर आख़िर होता ही कितनों के पास है! वह स्वयं को सही से बेच भी नहीं जाता, ज़रूरतमन्दी में अपने को औने-पौने नँघा देता है। जिन बिचौलिये-दलालों के हाथों वह ख़ुद को बेचता है, वे उसी से अपना कारोबार चमका कर पोएट्री के बिज़नेस टायकून बन बैठते हैं। रोज़ एक नयी धुन - ये ले, वो ले!
लेकिन ध्यान रहे! ये सब वे नाम हैं जो बीन की तान-लहरान पर झूमते-डोलते दन्तहीन नाग हैं, नकलची बन्दर हैं, रट्टू तोते हैं, मगन मन मैनाएँ हैं, कूकती कोयलें हैं, नर्तननिरत मयूर हैं। सँपेरे की लहराती बीन के प्रभाववश विषदन्तउच्छेदित नाग अपने ही स्थान पर पूँछ और कुण्डली के बल इधर-उधर डोलता तो है परन्तु उसकी अपनी स्वतन्त्र गति नहीं होती और न उसे बीन से निकली स्वरलहरियों का ही कोई ज्ञान और आनन्द होता है। उसकी एक फूत्कार पर फ़रार हो लेने वाले लोग उसको अपने मनोरञ्जन का साधन मात्र बना लेते हैं। उसको कोंचते भी हैं यत्र-तत्र, किन्तु वह भयङ्कर फणिधर फिर किसी का कुछ कर नहीं पाता। वानर मानुषिक हरकतें तो करता है किन्तु उसका प्रयोजन न मनुष्य हो जाना होता है, न उससे सिद्ध अदाकार हो जाना और न निहित स्वार्थपूर्ति करना। उसकी एक खौं पर नौ-दो ग्यारह हो लेने वाले लोग उससे दिल्लगी करते हैं और उसका अस्तित्व मात्र मदारी के हाथ की सण्टी के संकेतों पर कलाबाज़ी करती कठपुतली होकर रह जाता है।
तोता मन्त्र तो बोलता है किन्तु उसका अर्थ वह नहीं जानता, उसके मतलब से उसे कोई मतलब नहीं होता, उसके अमोघ प्रभाव से वह अनभिज्ञ होता है। मैना गाती तो है किन्तु उससे वह सामवेद की ज्ञाता-व्याख्याता नहीं हो जाती। कोयल की कुहुक हृदय को बाँध लेती है, उसकी हूक-कूक में अद्भुत आकर्षण होता है किन्तु वह किसी आँगन की रौनक नहीं बन पाती। उसे अण्डे देने किसी कौवे के अपावन घोंसले में ही जाना पड़ता है और उसके बच्चों को अपना बचपन मलभोगी कौवे के साथ ही बिताना पड़ता है। कोयल अपने बच्चों तक को अपना उष्ण मातृत्व प्रदान नहीं कर पाती, उन्हें अपनी स्नेहछाँह नहीं दे पाती, उन्हें तिनका तक न खिला पाती, इससे अधिक किसी सन्तानवान् की अभिशप्तता और क्या होगी! गगन से घनों की गहन ध्वनि सुनकर, बादलों को देखकर मयूर मगन होकर अपने शोभन पंख पसार कर नर्तन करता है किन्तु उसे यह पता तक नहीं चलता कि इस उद्योग में वह न केवल वह अनावरणित होता है प्रत्युत नृत्य-अनन्तर घटित उसकी नग्नता उसे दुनियावी उपहास का पात्र भी बनाती है और अन्ततः आश्चर्य यह कि हताशा और मरणान्तक उदासी उसे अपने पैरों को निहारकर होती है। यह है स्टेज की असलियत। गीतांजलि जैसे नामों की नियति यह नहीं।
कविता आत्मा की आवाज़ है, जिसके माध्यम से आत्मा अपने परमात्मा का अभिनन्दन और आराधन करती है। कविता अपने आराध्य का आराधन है। कुछ कविताएँ स्पष्टतः इस बात का इंगित किया करती हैं कि वे अपने अभीष्टप्राप्ति हेतु इष्ट से वार्ता का माध्यम बनी हैं। ऐसी कविताएँ न केवल साधना और आराधना की ही मङ्गलध्वनि होती हैं वरन् अन्ततः आरती का स्वर होकर उभरती हैं और याद रहे - आरती पूजा-पद्धतियों की हर सम्भव चूक का यथासम्भव परिहारनिवेदन है। जो इस तथ्य को समझते हैं कि इष्ट भाव का भूखा होता है और जो इस तर्क को स्वीकारते हैं कि भावना औपचारिक बन्धनों को तरजीह नहीं देती, वे ही ऐसी कविताओं के साथ आलोचनान्याय कर सकते हैं। सम्पूर्ण प्रणति ही सच्चा इष्टपूजन है और प्रणति का शिल्प क्या! वह तो अपने परम-चरम की अहर्निश कामना-भावना में ही स्वयं को धन्य पाती है। गीतांजलिजी के गीत इसी सन्दर्भ के सुभग निदर्शन हैं। उनकी कविताएँ अनायासतः गीतरूप में ही प्रस्फुटित होती हैं। यह उनकी रागचेतना का सबूत है क्योंकि गीत तो प्राथमिकतः और अन्ततः अभीष्ट-इष्ट के प्रति रागात्मक भाव की ही गवाही होते हैं।
कविता मूलतः तालमेल है कल्पनाओं और विचारों का। कल्पना की ऊँचाई और विचारों की गहराई का समीकरण और शिल्पन कविता की सुष्ठु और श्रेष्ठ देहयष्टि के लिये आवश्यक है पर काव्य की आत्मा रस के लिये भावनाओं की तीव्रता अलम है। भावप्रवणता गीत की सहज सिद्धि है। यूँ अनुभूति और अभिव्यक्ति का सम्यक् तालमेल ही काव्य को स्पृहणीय करता है किन्तु भाव-आयाम काव्यार्थ प्राथमिक शर्त है। कथ्य का पहलू तो एक तरह प्रज्ञोन्मेषन है। कला-आयाम भाव-आयाम हेतु देहोपम है। देह न हो तो भी आत्मा तो रहती ही है। आत्मा के अभाव में शरीर के पुष्ट सौन्दर्य का औचित्य क्या! व्यर्थ ही है वह। और फिर शिल्प पक्ष के लिये प्रायः सहज अभ्यास की दरकार पेश आती है। कथ्य के लिये ऐसे-वैसे किसी सामान्य अभ्यास की आवश्यकता आड़े नहीं आती। काव्य की परम्परा और उसकी लगभग हर विधा साधारणतः इस तथ्य को कहीं न कहीं सत्य सिद्ध करती है। गीतांजलिजी की विविधविध काव्यसम्पदा भी इसी तर्क की गवाही है कि उनकी अनुभूति का धरातल अभिव्यक्ति से गलबहियाँ करना चाहता है लेकिन इससे पूर्व वो हमसे कनबतियाँ कहीं अधिक करने को उत्सुक दीख पड़ता है। आइए! कानाबाती के इन पलों को हम शिद्दत से सुनें, महसूसें और छुएँ। पूर्वाग्रहमुक्ति इन किञ्चिन्मात्र सम्पादित गीतियों के पाठ की प्रथम शर्त होगी।
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