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Saturday, 27 October 2018
Sunday, 12 August 2018
Wednesday, 1 August 2018
गीत कौस्तुभ
प्राकृत कविताई का गीतमान
विधाता का वरदान है जीवन। जीवन एक कविता है और कविता की उत्तमोत्तम उपलब्धि है गीत। गीत गति का अनन्य साक्ष्य है। गति है तो गीत है। गति नहीं तो गीत नहीं। गीत बिना जीवन की गति भी नहीं। निर्धारित चरणों की नपी-तुली सुगठित गति हमारे जीवनसङ्गीत को उद्भासित करती है। ज़रा-सा भी भटके नहीं कि मामला भङ्ग! गीत बड़ी सुथरी साधना है। रहो कहीं, उड़ान कितनी भी भरो पर टेक एक ही - ध्रुव नहीं छोड़ना है : जैसे उड़ि जहाज को पंछी पुनि जहाज पै आवै। हज़ार बार इधर-उधर का अन्तराकाश नापना और बार-बार ध्रुव पर लौट आना और क्या है! गीत ही तो! गीत सिद्ध हो जाये तो मनुष्य सिद्ध हो जाये। जीवन का गीत किसी कृती को ही सिद्ध होता है : ऐसा कृती, जो श्वासों के शिल्प का कल्पचेता हो और इसके लिये आवश्यक यह है कि वह चेतन सम्भूत अम्बराग्रसरापेक्षी होकर भी धरा को न छोड़े, अपनी जड़ों से जुड़ा रहे। डॉ. श्यामपाल सिंह मौर्य 'श्याम शशितोष' इस प्रासङ्गिक सन्दर्भ में एक उल्लेख्य अभिधान हैं।
डॉ. शशितोष आनन्दमङ्गल के गायक हैं। उनकी कला-चेतना सूत-सूत नहीं नापती, वह तो सोते की तरह प्रवाहित बेमाप मस्ती की अभ्यस्त है। उनकी आत्मा में जब अनियन्त्रित धड़ंग उठती है, तभी वे कुछ काग़ज़ों पर छींटते हैं अन्यथा अपने जगद्व्यवहार में रत रहते हैं और इसका कारण है उनका ज़मीनी जुड़ाव। जिसने अपनी माटी का वेद पढ़ लिया, वह विद्याव्यवहार का व्यास हो गया। वे आज भी अपनी माटी से नहीं कटे और इसीलिये उस वेदामयूता माटी की खरी मस्ती उनकी प्रस्तृति, प्रस्तुति और स्तुति पर तारी है। मस्ती एक धुन है जो कृत्रिम छन्द नहीं स्वीकारती। मस्ती अगर मातृभूमि के व्यतीत-अतीत के गात और गीत गोत्र की हो तो वह आजन्म चुकती नहीं और इसीलिये डॉ. शशितोष के स्वर में वह बार-बार उभर आती है। लोकस्वर उनकी अपनी विशेषता है। लोकस्वर मूलतः भारत की आत्मा गाँवों की आवाज़ है। ग्राम्य स्वर अगर नागर होने की कोशिश करे तो असावधानीवश प्रायः मूल लालित्य खो देता है। शशितोषजी ऐसा कोई नाहक़ प्रयोग नहीं करते। ग्राम्यभाव और अमलिन आंचलिकता आज भी उनके आत्मराग में पूरे वैभव से विलसित है - 'गीत कौस्तुभ' उनकी आत्मा के इसी लोकवैभव का शब्दगुच्छ है।
भावस्तदभावभावनम के भावन्याय से की भावनाओं का अपार पारावार जब उमड़ता है तो उसका ज्वार-उद्गार सहृदय के अन्तर्ब्रह्माण्ड में दिग्-दिगन्त तक संक्रान्तिकाल के पलों को जीने लगता है। उनकी क़लम की जाग्रत जह्नुजा की अनाविल-अविरल धार कूल-कगार-कछार को पछाड़-पछाड़ निरन्तर अग्रसर रहते हुए तन्द्रालसित तटस्थों को जीवन का मर्मर राग सुनाती चलती है। सजग और स्पष्ट सौन्दर्यदृष्टि से उनकी काव्यसृष्टि राजभवनों की काट-छाँट समेटे उपवनों की शोभा नहीं, वह तो नितान्त निर्जन का नीराजन करते अनायास उग आयी वनश्री है। मरुस्थल की छाती से स्नेह सोख कर चिलकती तपन को परास्त करने की कठजीविता उसका अभीष्ट है। न ममैवैते न तवैवैते न तटस्थस्यैवैते की स्थितियाँ श्याम शशितोषजी की कविताओं की भावन-परिणति है। प्राकृत कविताई के इस शुभागत गीत-कौस्तुभ का हम स्वागत करते हैं और प्रकृत प्रातिभ कवयता के विद्वत् व्यक्तित्व का मङ्गलाभिषेक..
गीत कौस्तुभ / डॉ. श्यामपाल सिंह मौर्य श्याम शशितोष / लोकहित प्रकाशन, दिल्ली / सजिल्द प्रथम संस्करण 2017 / ISBN : 978-93-81531-61-7 / मूल्य ₹ 350/-